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________________ षोडशः सर्गः १९५ साधुओं पर द्वेष करना, असाधुओं पर राग करना, शुद्ध आचार को प्रगट नहीं करना और अन्धश्रद्धा तथा अन्धानुकरण करना-ये ही उस समय की संपदाएं थीं । १४. हीनाचारविचाराणां, शुद्धत्वेन निरूप्य च । स्वप्रतिष्ठावने दम्भान्दोलनं तद् विशेषता ॥ हीन आचार और हीन विचार को शुद्ध दिखलाना तथा अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दाम्भिक आन्दोलन करना ही उस समय की विशेषता थी । १५. कदाचारकुरङ्गाणां, श्रासने सिंहनादवत् । प्रवृत्तः स्वामिनां घोषो, वक्ष्यमाणो निशम्यताम् ॥ ऐसे कुत्सित आचार रूप मृगों को संत्रस्त करने के लिए स्वामीजी का सिंहनाद की भांति घोष हुआ, जिसका वर्णन आगे किया जाता है, ध्यान सुनें । १६. विनयमूलधर्मोऽस्ति, वीतरागप्रभोः सदा । परन्तु तस्य मर्मज्ञो, विरलः कोऽपि लक्ष्यते ॥ राग प्रभु का धर्म विनयप्रधान है, परन्तु उसका मर्मज्ञ कोई विरल व्यक्ति ही होता है । तद्गुरौ गुरुतायुते । गुरौ गुरुगुणहोंने, विनयोऽपि त्रपास्पदम् ॥ १७. विनयेषु बलं दत्तं इस वीतराग प्रभु के धर्म में गुरुता युक्त गुरु के प्रति ही विनय का प्रयोग करने पर बल दिया गया है । जो गुरु गुरु के गुणों से रहित होता है, उसके प्रति प्रयुक्त विनय भी लज्जास्पद बन जाता है । १८. असद्गुरौ विनयत्वंनंहि निस्तरणं भवेत् । सदसद्गुरुविज्ञानविहीनं जन्म निष्फलम् ॥ असद् गुरु के प्रति प्रयुक्त विनय से भव सागर से निस्तार नहीं हो सकता । सद् और असद् गुरु की पहचान के बिना नरजन्म व्यर्थ है । १९. कश्चिद् ब्रूयाद् गुरुस्तातो, द्वितीयो न कदाचन । इष्टोऽनिष्टस्तथापीह, त्यज्यते किं मनीषिभिः ॥ कोई यह बात कहता है कि गुरु और पिता दूसरे नहीं हो सकते । वे चाहें अच्छे हों या बुरे, क्या बुद्धिमान् व्यक्ति उनको छोड़ देते हैं ?
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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