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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७. येन केन प्रकारेण, क्रीतोद्दिष्टेषु साधवः । ___ मठाधीशा इवामोदात्, स्थानकेष्वधिकारिणः ॥
वे सन्त जैसे-तैसे मोल लिए गए और संतों के उद्देश्य से बनाये गये स्थानकों में मठाधीशों की भांति आनन्द करने लगे। ८. साधवेषो भवत्तत्र, केवलं ह.युदरम्भरिः। बीडको वञ्चको व्यंग्यो, निर्गुणत्वाद् विडम्बकः ॥
उस समय गुणरहित साधुवेश केवल पेट भरने के लिए, लज्जा का पात्र, ठगाई करने, व्यंग्योक्ति का पात्र तथा बिडम्बक बन गया था । ९. मर्यादाकल्पसन्नीत्यो, नागदन्ते ललम्बिरे ।
यद्वा तत्तदभिख्यातो, ह्यकाराद्याः प्रतिताः॥ .. मर्यादा, कल्प तथा शुद्धनीति तो खूटियों पर टंग चुकी थी। तथा उनके नाम के आगे अकारादि लग चुका था, जैसे-अमर्यादा, अकल्प, असन्नीति । १०. प्रमाणानि प्रमाणस्थ, रक्षणीयानि यत्नतः। विषीदन्ति प्रमाणानि, प्रमाणस्थविसंस्थुलैः॥
प्रामाणिक पुरुषों को प्रमाणों की रक्षा करनी चाहिए । जब प्रामाणिक पुरुष भी प्रमाणों से परे हो जाते हैं तब प्रमाण भी जीर्ण-शीर्ण बन जाते हैं।
११. साधूनामपि सिद्धान्तादुदस्थात्प्रत्ययो वरः। गृहस्थानां तदा के स्युः, सत्यविश्वासकारकाः ॥
जब साधुओं का विश्वास भी सिद्धांतों से हट जाता है तब श्रावकों का तो कहना ही क्या ! ऐसी स्थिति में सत्य पर विश्वास करने वाले कौन हो सकते हैं ?
१२. गुरवो भिन्नभिन्नाश्च, सम्प्रदायाः पृथक् पृथक् । भिन्ना भिन्ना विचाराश्च, भिन्ना भिन्ना हि रीतयः॥
उस समय भिन्न-भिन्न गुरु, भिन्न भिन्न संप्रदाय, भिन्न-भिन्न विचार एवं भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज प्रचलित थे।
१३. सतां देषोऽसतां रागः, शुद्धाचाराऽप्रकाशनम् ।
अन्धश्रद्धानुकरणे च, तस्य कालस्य सम्पदः ॥