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षोडशः सर्गः
१. अथ भिक्षोर्महाक्रान्ति, वक्तुमिच्छामि निर्मलाम् । महाक्रान्तिकरः साक्षाद, ययाऽगीयत गौरवात् ॥
इस संसार में जिस गौरव से वे महाक्रांति कारक कहलाये उन भिक्षु महामुनि की निर्मल महाक्रांति का वर्णन करने जा रहा हूं। २. जैनधर्मो विकारोघापन्नोति कुलिङ्गिभिः। राहुभिः पूर्णचंद्रोऽपि, समावृत्तो न किं भवेत् ॥
उस समय जैन धर्म कुलिङ्गियों द्वारा अति विकृत हो गया था। क्या पूर्णचंद्र भी राहु से ग्रसित नहीं होता ? ३. वैक्रमकोनविश्यां यच्छताब्दयां दृष्टिपाततः । प्रायशः साधुपाशानामेधनंपरिजम्भितम् ॥
विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि प्रायः उस समय शिथिलाचारियों की अभिवृद्धि हो चुकी थी।
४. अनाचारमहाघोरघटा युगपत् समुत्थिता। सम्यकच्छता विलुप्ताऽथ, विलुप्तं शुद्धजीवनम् ॥
तब अनाचार रूपी महाघोर घटा एक साथ छा गई, जिससे सम्यक् श्रद्धा और शुद्ध जीवन लुप्त-सा हो गया।
५. वेषाडम्बरसम्भारोत्सर्पणं केवलं तदा । . साधूनां साधनां सर्वां, लिलिहे सुखशीलता ॥
ऐसी स्थिति में केवल वेश के आडम्बर के भार की वृद्धि होने लगी और साधुओं की सारी साधना को सुखशीलता ने चाट लिया ।
६. चरित्रनिधनाः सन्तः. श्रावका अपि सर्वतः। संवृत्ताः क्षिप्तसत्सारा, भग्नकुम्मा इवाऽखिलाः ॥
साधु और श्रावक अपने-अपने व्रतों से दरिद्र हो चुके थे और वे भग्नकुम्भ की भांति पूरे खाली हो चुके थे।