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पञ्चदशः सर्गः
१५३. कः सत्त्वं नयते दिवं वदति तं काष्ठं क्षिपेद् वारिणि, चौध्वं लाति न कोऽपि लाघवगुणात् तत् स्वं तरल्लक्ष्यते' । जीवोऽपीह तथा स्वकर्मलघुकः स्वर्गं प्रयाति स्वयं, श्रुत्वेदं च खिवेसराख्यपुरुषो मोमुद्यमानो ध्रुवम् ।। खिवेसरा ने पूछा- 'जीव देवलोक में जाता है, जाता है ? ' तब स्वामीजी बोले- 'काठ को पानी के अन्दर डालने पर वह ऊपर आ जाता है। उसे कोई ऊपर नहीं लाता । पर वह अपने हल्केपन के कारण ऊपर आकर तैरने लग जाता है । इसी प्रकार जीव भी कर्मों से हल्का होने पर अपने आप ऊपर देवगति में चला जाता है । यह सुनकर खिवेसरा व्यक्ति बहुत प्रसन्न हुआ ।
उसे ऊपर कौन ले
१५४. चर्चामन्यमताः श्लथा विदधतः श्रद्धासदाचारकों,
वार्त्ता न्याययुतां विमुच्य विमुखा मध्येऽन्यथा तन्वते । जीवानां परिरक्षणे कथयसि त्वं पापमित्यादिकां, स्वामी तद् विषये विबोधनकृते दृष्टान्तमेकं ददौ । १५५. स्तंन्यं स्तंन्यकरा विधाय तदनु प्रौद्दीप्य वह्नि गता
स्तं विध्यापयितुं तु पश्चिमजना यावद् यतन्तेतराम् । ते नश्यन्ति निरापदः खलु तथा नामार्हतास्ते स्वयमाचारं परिपातुमक्षमतरा आचारिभिद्वेषिणः ॥
१५६. तां चर्चा परिमुच्य केवलमिमं लोका मोत्पादकं,
वृत्तान्तं रचयन्ति भिक्षुरसको जीवाऽवने पापवक् । दानस्यापि दयावृषस्य नितरामुत्थापकश्च प्रभु, वीरं विस्मृतिकारकं कथयति ह्येवं जगन्मोहकाः ॥
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(त्रिविशेषकम् )
आचार-विचार में श्लथ कुछेक अन्य मतावलम्बी श्रद्धा और आचारविचार की न्याययुक्त चर्चा को बीच में छोड़कर उससे विमुख होकर, आचार्य भिक्षु से कहते आप तो जीवरक्षा में पाप बतलाते हैं आदि-आदि। इस प्रकार अप्रासंगिक चर्चा करने वालों को प्रबोध देने के लिए स्वामीजी बोले - एक गांव में चोर चोरी कर जाते समय पीछे से गांव में आग लगा गए । गांव वाले पीछे से उस आग को बुझाने में लग जाते हैं और वे चोर निरापद रूप से वहां से पलायन करने में सफल हो जाते हैं। इसी प्रकार शिथिलाचारी
१. तरद् लक्ष्यते — दृश्यते ।
२. भिदृ० १४२ ।