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श्रीभि महाकाव्यम् १९३. किं कल्पेत कपाटपाटनमहो! नो कल्पते साधवे,
तत्कृत् ते श्रमण'स्तदा प्रचलितं स्यात् कुत्रचित् स्वागमे । पृष्टश्चेत्थमनेकशोऽपि स तथा प्रत्युत्तरी स्वाम्यऽवग, जामाता तव नणसिङ्घ! सरलो नो बोध्यते तादृशः ॥ (त्रिभिविशेषकम)
एक बार स्वामीजी नाथद्वारा में विराज रहे थे। नैणसिंहजी श्रावक का दामाद उदयपुर से वहां आया। नैणसिंहजी ने आचार्य भिक्षु से प्रार्थना की-'आप इन्हें प्रतिबोध दें।' उसे प्रतिबोध देने से पूर्व परीक्षा के लिए स्वामीजी ने उसे पूछा-'तुम जैनतत्त्वों को जानते हो या नहीं ?' उसने कहा-'मैं श्रावक हूं और तत्त्वों को जानता हूं।' तब स्वामीजी ने पूछाबताओ, साधुओं को आधार्मिक स्थानक में रहना कल्पता है या नहीं ? उसने कहा-साधु रहते तो हैं। संभव है कहीं आगमों में इसका उल्लेख हो।' आचार्यश्री ने पूछा-'साधु को क्या नित्यपिंड आहार लेना कल्पता है ?' उसने कहा- नहीं कल्पता । स्वामीजी बोले-साधु नित्यपिंड आहार लेते तो हैं। तब उसने कहा-'कहीं आगम में आया होगा।' स्वामीजी ने पुनः पूछा-क्या साधु को कपाट बंद करना कल्पता है ? उसने उत्तर दिया -नहीं। स्वामीजी बोले-'तुम्हारे मुनि ऐसा करते तो हैं।' वह बोला'तब तो कहीं न कहीं आगमों में उल्लेख होगा ही।' स्वामीजी जो कुछ पूछते, वह इसी प्रकार उत्तर देता। तब स्वामीजी ने कहा-नसिंह ! तुम्हारा दामाद अत्यन्त ऋजु है, भोला है। उसे प्रतिबोध देना, समझाना संभव नहीं है। १९४. प्रामेशाधमजातिवान् समभवत् पूर्याभिधः किङ्करः,
शिष्योऽजायत योगिनः स च कदा योगीन्द्रयूथैः सह । तमामे हि समागमत् तदधिपो योगीशभक्तो महान्,
तत्पङ्क्तेश्चरणामृतं प्रमुदितो गृह्ण स्तमक्याऽवदत् ॥ १९५. रे पूर्या ! त्वमहो ततः स भतिभुक् हास्यान्वितः प्रोचिवान,
दृष्टानां हि विलग्नकः किमु भवान् सर्वेऽपि मत्सन्निमाः। मर्मज्ञाः सहचारिणां सहचरा नो बाह्यसंदर्शका, इत्थं वेषधराः समेऽपि शिथिला जानन्ति तांस्तात्त्विकाः ॥ (युग्मम्)
किसी व्यक्ति ने कहा-अमुक साधु ऐसा है, अमुक साधु ऐसा है । तब स्वामीजी ने फरमाया-अमुक-अमुक क्या कहते हो ये तो सारे पूर्या ही पूर्या हैं। इस पर स्वामीजी ने एक दृष्टान्त दिया-किसी प्रामाधिपति के १. ते श्रमणः इति तव श्रमणसंघः । २. भिदृ०, १५६ ।