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श्रभिक्षु महाकाव्यम्
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राजपथ जैसा है । वह निरन्तर अभयमय तथा अपने गन्तव्य वाला सन्मार्ग है । वह सरल और अवरोध रहित होता है । वह कहीं भी बीच में नहीं रुकता । पाषण्डियों का मार्ग पशुओं की पगडंडी जैसा है । वह उन्मार्ग है । पहले वह ऋजु लगता है फिर घुमावदार बन जाता है । इसी प्रकार अन्यान्य मुनि व्याख्यान की आदि में थोड़ा सा दान - शील आदि बतलाते हैं, फिर हिंसा में धर्म बतला देते हैं ।'
१६९. एतन्मे च तवेदमित्यपहृतेर्माध्यस्थ्यबुद्धया बुधे
श्चिन्त्यं सत्यमसत्यमस्ति किमिह न्याय्यं किमन्याय्यकम् । सत्यासत्यपरीक्षका जिनमतं धर्तुं क्षमास्तत्त्वत
स्ते संसारसमुद्रपारगमकाः स्युः सच्चिदानन्दकाः ॥
विद्वान् व्यक्ति 'यह मेरा है और यह तुम्हारा है' ऐसा न सोचे । वह मध्यस्थबुद्धि से यह सोचे- सत्य क्या है, असत्य क्या है; न्याययुक्त क्या है और अन्याययुक्त क्या है । सत्य और असत्य की परीक्षा करने वाले ही जैन धर्म की धुरा को वहन करने में समर्थ हो सकते हैं । यथार्थ में वे ही संसार के पारगामी और सच्चिदानन्द का उपभोग करने वाले होते हैं ।"
१७०. केनोक्तं सुकृतं तदेव विरतेर्जीवाः स्थिता जीविता,
व्याचष्टे तमृषिविवेद विदुरः कीटीं च कीटों स्फुटम् । तज्ज्ञानं किमु सा तदोत्तरमिदं बुद्धं हि बोधो न सा, श्रद्धा नैव पिपीलिका मननवत् प्रश्नोत्तरान्तो ऽत्र सः ॥
१७१. पृष्टः सोऽपि पिपीलिका प्रमथनत्यागो दया किन्तु सा,
सोऽवक् सा च सुरक्षिता स्थितवती सेवाऽस्ति साध्वी दया । व्याख्यायि श्रमणेन साऽथ मरुतोड्डीना दया साऽपि कि, सोऽप्यालोच्य तदा ब्रवीति विरतिः संवाऽस्ति नूनं कृपा ॥
१७२. स्वामी तं प्रतिभाषते पुनरिदं सद्युक्तिपाथोनिधी,
रक्ष्या त्यागमयी दया किमथवा कोटी समालोच्यताम् । तेनाऽवाच्यऽचिरात् विचिन्त्य सुमुने ! कार्यं दयापालनं, जीवोsस्थात् खलु जीवितः सुविरतेः सार्वोक्तधर्मो न सः ॥
१ भिदृ० १३४ ।
२ . वही, १२ ।
३. प्रश्नोत्तरान्तः - प्रश्नोत्तर निर्णयः ।
(त्रिविशेषकम् )