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श्रामि महाकाव्यम् १६३. इत्यं श्राद्धजने विमाति युगपन्नित्यं व्रतं चाव्रत
मत्यागोविरतिस्तथा हि विरतिस्त्यागो जिनरुच्यते। तभोगादिकमवतं खलु ततो धर्म विदित्वाऽबुधस्तैस्तैस्तान् परिपोषयेत् स विफलो धत्तूरसेक्ता यथा ॥ (युग्मम्)
जैनागमों में श्रावक को व्रताव्रती कहा गया है। उसके व्रताव्रती जीवन की पहचान के लिए तथा उसके पोषण में क्या निष्पत्ति होती है यह स्पष्ट करने के लिए आचार्य भिक्षु ने एक सुन्दर दृष्टान्त प्रस्तुत किया-एक बगीचे में आम और धत्तूरे का पेड़ था। कोई व्यक्ति आम्र की इच्छा से वहां आया और आम्र वृक्ष के स्थान पर प्रमुदित होकर धत्तूरे के पेड़ को प्रयत्नपूर्वक सींचने लगा। कई दिनों के बाद वह देखता है कि धत्तूरे का पेड़ तो पुष्पित और फलित हो रहा है पर आम का पेड़ सूखने व मुरझाने लग गया है। यह देख वह निराश होता हुआ आंखों से आंसू बहाने लगा। इसी प्रकार श्रावक के जीवन में भी व्रत, अव्रत-दोनों एक साथ रहते हैं। श्री जिनेश्वर देव का कथन है कि व्रत त्याग है और अव्रत अत्याग। श्रावक का त्याग व्रत है और भोग आदि अव्रत है। उस अव्रत को धर्म मानकर यदि अज्ञ मनुष्य भोग आदि अव्रतों से उन श्रावकों का पोषण करता है और धर्म की वांछा करता है तो वह आम्रफल की इच्छा से धत्तूरे के वृक्ष को सींचने वाले मनुष्य की भांति विफल होता है, पश्चात्ताप ही करता है ।
१६४. मोहस्य ह्य पलक्षणाऽतिगहना तत्कारणाचं प्रमु
दंष्टान्तं प्रददौ यथा नवयुवा प्रोद्वाह्य मृत्युं गतः। लोकाः शोकसमाकुलाः करुणया हा हन्त आचक्षते, एतस्याः पतिदुःखपूर्णयुवतेः कालः कथं यास्यति ।
१६५: प्राजीविष्यदयं तदात्र पुरतोऽभोक्ष्यत् सुभोगांश्चिरं,
द्वित्राः बालकबालिकाः समभवंस्तस्तैर्महानन्दिनी । इत्यं संसृतिमोहकारकजनास्तत्वाङमुखैः कश्चन,
मन्यन्तेऽतिदयालवः सुपुरुषा दुःखान्वितंदुःखिताः ॥ १६६. तादृक्षा न विदन्ति किन्तु विषयरस्या भवे दुर्गति
श्चिन्ता सा पिन नो मृतस्य स इतो मृत्वा गति का गतः । तत्त्वज्ञा न तथाविधं विदधते मोहं च सांसारिकं, स्युः सद्धर्मसहायकाः सुसमयाद्धर्षेश्च शोकः पृथक् ॥ (त्रिभिविशेषकम)
सांसारिक मोह की पहिचान बहुत कठिन है। स्वामीजी ने दृष्टान्त दिया- कोई व्यक्ति ब्याह करने के बाद छोटी अवस्था में ही मर गया । तब