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पञ्चदशः सर्गः
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किसी ने कहा - प्राणातिपात विरति करने से जो जीव बचा वह भी धर्म है । तब स्वामीजी बोले- कोई चींटी को चींटी जानता है वह ज्ञान है या चींटी ज्ञान है ? वह बोला – कोई चींटी को चींटी जानता है वह ज्ञान है । फिर स्वामीजी ने पूछा- चींटी को चींटी मानता है वह श्रद्धा है या चींटी श्रद्धा है ? तब वह बोला-चींटी को चींटी मानता है वह श्रद्धा है । फिर स्वामीजी ने पूछा-चींटी को मारने का त्याग किया वह दया है या चींटी बची वह दया है ? वह बोला- चींटी बची वही सच्ची दया है । तब स्वामीजी बोले- चींटी हवा में उड़ गई तो क्या उसकी दया भी उड़ गई ? वह विमर्शपूर्वक विचार कर बोला - चींटी मारने का त्याग किया वह दया है, चींटी बची वह दया नहीं ।
तब सयुक्तियों के महान् समुद्र स्वामीजी ने उसे पुन: पूछा- दया की रक्षा करनी चाहिए अथवा चींटी की ? यह तुम सोचो। वह सोचविचार कर बोला- दया की रक्षा करनी चाहिए। प्राणवध की विरति करने पर जीव बचा, वह धर्म है - ऐसा कहना सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म नहीं है ।
१७३. ब्रूते कोऽपि मुनीश्वर ! प्रतिभया तारोऽस्य निष्काश्यतां,
aust नाक्षिगता हि वः क्व च तदा तारस्य निष्काशनम् । आधाकममुखा बृहद्गुरुतरा दोषा महारम्भिका, दृश्यन्ते न ततः सुसूक्ष्मविषया दृष्टि गताः स्युः कथम् ॥
किसी ने कहा - 'मुनीश्वर ! आप अपनी प्रतिभा से इस विषय का ( दोष का) तार निकालें, विषय की सूक्ष्मता को प्रगट करें ।' स्वामीजी बोले- जब डंडे भी दिखाई नहीं दे रहे हैं तो सूक्ष्मतर तार कैसे दिखाई देंगे ? आधाकर्मी आदि महान् आरंभ वाले दोष ही जब दिखाई नहीं पड़ते तब अतिसूक्ष्म दोष दृष्टिगत कैसे हो सकेंगे ? १
१७४. भिक्षो ! स्थानकमाकृतं च मयकाऽनारम्भतः केवलं, कम्बाभिस्तमुवाच मङ्क्षु मुनिरा भावीह चूर्णार्पणम् । जातं सर्वतथाविधानमचिरात् सूचीप्रवेशे सति,
तत्र स्यान् मुशलप्रवेश ऋजुमान् पातोऽनुपातो मुहुः ॥
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा- 'भीखनजी ! मैंने स्थानक के लिए जमीन खरीद कर वहां लकड़ी का एक फाटक लगाकर स्थानक का रूप दे दिया । इसमें कौनसी हिंसा हुई ?' स्वामीजी ने उससे कहा- लगता है।
१. भ० १४९ । २. वही, १७४ ।