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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् मुनि स्वयं सदाचार का पालन करने में अक्षम होते हैं। वे नाम मात्र के साधु हैं तथा वे अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए आचारवान् मुनियों से द्वेष करते हैं । वे श्लथ मुनि मूल चर्चा को छोड़कर, लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए कहते हैं-आचार्य भिक्षु जीवरक्षा में पाप कहते हैं। वे सतत दयादान के उत्थापक हैं। वे भगवान् महावीर को चूका बताते हैं, आदि-आदि । इस प्रकार वे लोगों को मूढ बनाते हैं।'
१५७. लात्वा भिक्षुममाऽगमद् रघुगुरुभिक्षाचरी तत्र च,
कर्पासं प्रतिलोढयन्नरकरानीत्वाऽशनं स्थानके । पृष्टो भिक्षुरिहाऽपतत्तव किमाशङ्का तदा सो वद
च्छङ्का किन्नु यदाऽतमेव भवता साक्षादशुद्धं ततः ॥ १५८. रक्ष्या द्रव्यगुरुस्तदाह तमृषि गम्भीरदृष्टिस्त्वया,
त्वादृक् कोप्यरुपचेलिमो निजगुरुं गृहन्तमप्रासुकम् । प्रोचे नो नहि कल्पते गुरुवर ! श्रुत्वा जलं प्रोज्झ्य सः,
प्रत्यागाद् विजहार तेन विपिने शिष्यस्य तृष्णाऽलगत् ॥ १५९. व्याचष्टे स्वगुरुं तृषार्तविनयस्तों हि मां बाधते,
सह्या साधुपयोऽस्ति धैर्यमतुलं रक्ष्यं गुरुः प्राह तम् । किन्त्वार्तेन सचित्तमम्बु रसितं तेनाऽसहेन द्रुतं, .
प्रायश्चित्तमगान्महन्नहि ततः स्तोकेन कार्य सरेत् ॥ १६०. स्तोकस्तोककृते ततो न हृदयं सक्षोमणीयं त्वया,
ताकतुच्छविचारणा न हि वरा हेया सदा सर्वथा। श्रुत्वा तां गुरुभारती प्रविमना भिक्षुः समालोचयदेतादृच्छिथिलत्वपोषकसतामेतादृशं दृश्यते ॥
(चतुभिः कलापकम्) तेरापंथ की दीक्षा से पूर्व स्वामीजी अपने गुरुजी के साथ गोचरी के लिए गए । एक भाई चरखा कात रहा था। उसके हाथ से आहार का दान लिया। गुरुजी ने स्थानक पर आकर पूछा-भीखणजी ! क्या शंका हुई ? तब स्वामीजी बोले-'साक्षात् अकल्पनीय और अशुद्ध आहार का दान लिया, उसमें फिर शंका की क्या बात ?' तब गुरुजी बोले-तुमको दृष्टि गहरी रखनी चाहिए। पहले तुम्हारे जैसा एक नया शिष्य गुरु के साथ गोचरी गया था। अकल्पनीय जल लेते समय उसने गुरु से कहा-भगवन ! यह पानी लेना नहीं कल्पता। तब गुरु ने वह पानी नहीं लिया। फिर एक बार १. भिदृ० १३३ ।