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श्रीभिनुमहाकाव्यम्
१५०. अस्ति ज्ञानमतोङ्गणे नहि घरेत् पत्रं तथा पुस्तकं
नो पृष्ठं वितरेयतो ननु लगेवाशातना कोऽप्यवक् । तं स्वामी प्रतिभाषते यदि मतं तत् स्यात् तदानीं शृण,
तस्मिन् संज्वलिते हृते प्रशटिते डीने च किं तत् तथा ॥ १५१. ज्ञानं जीवमजीवमेव च दलं जानीहि वर्णाकृति,
नूनं तामुपलक्षणार्थविहितां नान्यनिमित्तं मनाक् । पत्रादौ लिखिताक्षराभिमननं ज्ञानं तदात्मा च स, स्वपार्वेस्ति दलादिकं तदितरद् बुध्यस्व तत्त्वं परम् ॥ (युग्मम्) ।
कुछ लोग कहते हैं- 'पुस्तक-पन्नों को जमीन पर नहीं रखना चाहिए और उनकी ओर पीठ कर नही बैठना चाहिए। क्योंकि पुस्तक-पन्ने ज्ञान हैं । ज्ञान की आशातना नहीं करनी चाहिए।' तब स्वामीजी बोले'पुस्तक-पन्नों को तुम ज्ञान कहते हो, तो पुस्तक-पन्ने फट गए, तो क्या ज्ञान फट गया? पुस्तक-पन्ने जीर्ण हो गए, तो क्या ज्ञान भी जीर्ण हो गया ? पन्ने उड़ गए तो क्या ज्ञान भी उड़ गया ? पन्ने जल गए तो क्या ज्ञान भी जल गया ? पन्ने चुरा लिए गये तो क्या ज्ञान भी चुरा लिया गया ? पन्ने तो अजीव हैं और ज्ञान जीव है । अक्षरों का आकार तो पहिचानने के लिए है। जो पन्ने में लिखा है, उसका बोध ज्ञान होता है, वह आत्मा है और वह अपने पास ही है। पन्ने भिन्न हैं- आत्मा से अन्य हैं। इस तत्त्व को समझो।
१५२. जीवो यो नरकं प्रयाति तमसा कस्तानयेत् तं प्रति,
स्वाम्यूचेऽन्धुपतच्छिलां च तदधः कस्तां तदाकर्षयेत् । । भारेण स्वत एव याति च तलं तद्वत् स्वदुष्कर्मणा, वैविध्यात्' व्रजति स्वयं हि निरयं नान्येन सम्प्रेरितः॥
सिरियारी की घटना है। एक व्यक्ति ने पूछा-नरक में जीव पाप कर्मों से जाता है। उसे नीचे कौन खींच ले जाता है ? स्वामीजी बोलेकोई अन्धु अर्थात् कुएं में पत्थर डालता है, उसे नीचे कौन ले जाता है ? वह स्वयं के भार से अपने आप नीचे तल तक चला जाता है । इसी प्रकार अपने पाप कर्मों के भार से भारी बना हुआ जीव अपने आप नरक में चला जाता है, दूसरों से प्रेरित होकर नहीं।
१. भिदृ० ३०८ । २. वैविध्यात्-भारात् । ३. भिदृ० १४१ ।