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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
युक्ति और दृष्टांत का प्रयोग करते हैं। यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और मन ही मन भिक्षु का गौरव गाता हुआ घर गया ।'
१४१. रोगाक्तं विलपन्तमाह मुनिराड नैवं विधेयं त्वया,
मौलौ कस्य ऋणं न दित्सुरपरो जग्राह शक्त्या ततः । मूर्खः सीदति मोदतेऽत्र निपुणो जातोऽनृणीत्थं बुबैश्चिन्त्यं मे कृतकर्मनिर्झरणकं रक्ष्यं समत्वं ततः ॥
एक व्यक्ति बीमार था। वह विलाप कर रहा था। स्वामीजी ने कहा—तुम्हें इस प्रकार विलाप नहीं करना चाहिए। ऐसे सोचना चाहिए, किसी के सिर पर ऋण का भार है। वह ऋण चुकाना नहीं चाहता। ऋणदाता तब बलपूर्वक उससे अपनी पूंजी वसूल लेता है। ऐसा होने पर मूर्ख व्यक्ति दुःखी होता है और समझदार व्यक्ति यह सोचता है कि अच्छा हुआ, ऋण का भार उतर गया, मैं हल्का हो गया। इसी प्रकार बीमारी में भी यही सोचना चाहिए कि मुझे कर्म-निर्जरा का अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे इस बीमारी को पूरी समता से सहन करना है ।' यह है सम्यक् सोच ।
१४२. गन्त्रीचक्रयुगान्तरे शिशुशशः स्थानं व्यधात् तद् बहु
यातायातहतोऽपि तत्त्यजति नो नुन्नो नरैः सज्जनः। तद्वत् तत्त्वरुचे रहस्यमचलं स्वान्ते निविष्टं परं, स्नेहान्नो कुगुरुन् जहात्यपि तथा वैदग्ध्यमेतन्न हि ॥
आचार्य भिक्षु ने कहा- 'बैलगाड़ी के दो पहियों के आने-जाने की लीक के बीच में किसी खरगोश ने अपना घर बसाया। बैलगाड़ियों के आते जाते समय उस खरगोश के सिर पर गाड़ी के नीचे बंधी हुई रस्सी की चोट लगती। फिर भी वह उस स्थान को नहीं छोडता था।
इतने में दूसरे खरगोश ने कहा- 'यहां तुम्हारे सिर पर चोट लगती है, इसलिए इस स्थान को तुम छोड़ दो।' वहां रहने वाला खरगोश बोलापरिचित स्थान छूटता नहीं है। इसी प्रकार सच्चे सिद्धांत का रहस्य समझ में आ जाने पर भी स्नेहबंध के कारण कुगुरु का संग छोड़ने की विदग्धता नहीं होती।
१. भिदृ० ३०६ । २. वही, २७८ । ३. वही, २७१।