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पञ्चदशः सर्गः
* १३८. कश्चित् सत्सविधेऽगमत् स्थितिवशाद् विस्मृत्य रूपाण्यऽयुक्, तान्याऽवाय गतोऽन्यना मुनिवरं पप्रच्छ विस्मारकः । सन्तः किञ्च न वेदयन्ति मृतवद् गार्हस्थ्यकार्याय ते, धर्मे ते हि सहायका न हि पुनः सावद्यसारम्भके ॥
आचार्य भिक्षु प्रवचन कर रहे थे । एक व्यक्ति वहां आया और परिस्थितिवश पांच रुपये वहां भूलकर चला गया । इतने में ही दूसरा व्यक्ति उन रुपयों को उठाकर ले गया। संतों ने देख लिया। पहले व्यक्ति ने आकर संतो से पूछा- मेरे रुपये कहां गए ? संत सब कुछ जानते हुए भी उसे कुछ नहीं बताते । वे गृहस्थ के कार्य के लिए मृतवत् हैं। वे केवल धर्म - कार्य में ही सहायक बनते हैं, न कि सावद्य और हिंसायुक्त कार्यों में ।'
१३९. पक्वान्नानि विभुज्य तान्यतिकटून्याऽह ज्वरी जेमकान्, श्रोतारो बुवतेऽथ ते ज्वरवशादिष्टान्य निष्टान्यहो । इत्थं तत् कुगुरोर्द लाग्रहवतां रुच्या न सत्साधवः, मिथ्यात्वामयतोऽथवा सदसतोः सद्द्बोधवैकल्यतः ॥
कुगुरु के पक्षपाती को साधु अच्छे नहीं लगते । इस विषय को समझाने के लिए स्वामीजी ने दृष्टांत दिया- एक ज्वरग्रस्त आदमी किसी जीमनवार में भोजन करने गया । वह दूसरे लोगों से कहने लगा- पकवान बहुत कड़वे बनाए । तब लोग बोले- हमें तो अच्छे लगते हैं । तुझे कड़वे लगते हैं तो पता चलता है कि तुम्हारे शरीर में ज्वर है । इसी प्रकार जिसमें कुगुरु के दल (पक्ष) का आग्रह है, मिथ्यात्वरूपी रोग है तथा जो सद्बोध से विकल है उसे सत् साधु अच्छे नहीं लगते । '
१४०. मिथ्यात्वं परिहर्तुमेव मुनिभिर्वृष्टान्तसद्धेतवो,
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यन्ते तत आह कोऽपि सरलः कोर्थश्च तैः तैः प्रभो ! भिक्षुस्तं प्रति संजगौ किमु लगेल्लक्ष्यं विना गोलिका, श्रुत्वा सोऽति जहर्ष हृष्टमनसा सद्गौरवं गायति ॥
मिथ्यात्व को मिटाने के लिए स्वामीजी हेतु, युक्ति और दृष्टांत देते थे। तब किसी ने पूछा- आप इतने हेतु, युक्ति और दृष्टांत का प्रयोग क्यों करते हैं ?
तब स्वामीजी बोले- चोट निशाने पर लगती है । उसके बिना चोट कहां की जाए ? इसी प्रकार मिथ्यात्व को नष्ट करने के लिए हम हेतु,
१. भिदृ० २८० । २, वही, ३०३ ।