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१३५. आसोज वृषवेशनासु मुनिराज् निद्रां नयन्तं मुहुस्तं पृच्छन् ननकारमेव कुरुतेऽप्राक्षीत् पुनस्तं तथा । जीवन्नस्ति न वालपतदिव नो स्वामी महाविस्मितोसत्यं स्पष्टयितुं क्षति क्षपयितुं बुद्धघाऽयतिष्ट स्वयम् । • श्रावक आसोजी स्वामीजी का व्याख्यान सुन रहे थे । उन्हें नींद बहुत आ रही थी । आचार्य भिक्षु ने पूछा - आसोजी ! नींद ले रहे हो ? उन्होंने कहा- नहीं महाराज ! ऐसा पूछने पर वे सदा नकारते ही रहे । तब आचार्य भिक्षु ने उन्हें युक्तिपूर्वक समझाने, उनके असत्य को स्पष्ट करने, उनकी त्रुटि को मिटाने के लिए बुद्धिपूर्वक पूछा - ' आसोजी ! तुम जी रहे हो ?' तब स्वभावानुसार आसोजी बोल उठे - 'नहीं स्वामीनाथ ! यह सुन कर आचार्य भिक्षु तथा तत्रस्थ लोग अत्यन्त विस्मित हुए
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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
१३६. कैश्चिज्जीवितरक्षितेन कलुषं यद् यद् यदा सृज्यते, पश्चाद् रक्षयितुः प्रणक्ति सततं तद् तद् भवन्मान्यता । नेवं मे मननं च भिक्षुरवदद् यावज्जिनंवक्षितं, तावत्तस्य तदैव शीघ्रमलगच्छ्रद्धानमेतन्मम ॥
१३७. श्रद्धा वो हि तथा विधा ननु यथा चाग्रे तपःकारिणो, यूयं भोजयथात्र भोक्तृतपसो लाभागमं लिप्सवः । भोक्तुः सम्प्रति यद् भवेत् समयतस्तद् भोजकस्यैव च, पश्चाद् यः सुकृतं करिष्यति फलं तस्यैव नान्यस्य तत् ॥ ( युग्मम् )
एक व्यक्ति ने कहा- 'भीखनजी ! आपका यह मानना है कि कोई व्यक्ति प्राणी को बचाता है और वह रक्षित प्राणी आगे जो-जो पाप करेगा वह पाप उसकी रक्षा करने वाले को सतत लगता रहेगा ।' यह सुनकर स्वामीजी बोले- मेरी ऐसी मान्यता नहीं है । मेरी तो मान्यता यह है कि जिनेश्वर भगवान् ने जो देखा है उतना पाप उसको तब ही लग चुका । यह तो तुम्हारी मान्यता है कि तपस्या से पूर्व कराई जाने वाली 'धारणा से आगे की जाने वाली तपस्या का लाभ हमें मिलेगा । यह मान्यता मिथ्या है । खाने वाले को वर्तमान में जो होता है, वह खिलाने वाले को भी होता है । बाद में जो धर्म-कर्म करेगा, उसका फल उसी को मिलेगा, दूसरों को नहीं ।
१. भिदृ० ४८ । २ . वही, १५५ ।