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१२९. काप्यूचे दयितो लिखेन् मम च तन्नाध्येतुमन्यः क्षमः, सोऽपि स्वाङ्कितमीश्वरो न पठितुं प्रावक् परा मे पतिः । इत्थं स्वीयगिरा स्वयं हि मनुजा अज्ञा भवेयुः शठास्तेषां केवलिभाषितो वरवृषो दुर्लक्ष्य एवाऽनिशम् ॥
श्रीमहाकाव्यम्
एक बहिन बोली- मेरा पति ऐसे अक्षर लिखता है, जिन्हें कोई पति ऐसा लिखता है, जो स्वामीजी ने कहा --जगत्
दूसरा पढ़ नहीं सकता ।' दूसरी बोली- 'मेरा स्वयं का लिखा हुआ स्वयं ही नहीं पढ़ सकता।' में ऐसे बुद्धि- हीन हैं, जो स्वयं की भाषा से स्वयं अनभिज्ञ रहते हैं, ऐसे लोग केवलिभाषित धर्म को कैसे पहिचान सकते हैं ? उनके लिए वह धर्म सदा दुर्लक्ष्य ही रहता है । "
१३०. केनाsजल्पि सुने ! फलं वरतरं ग्राह्यं तदा सन्नऽवक्, श्रेष्ठेयं तव भावना परमिदं दातो ! न मे कल्पते ।
तत्त्वज्ञो विनयोऽवदद् यदि वरा कल्पातिरिक्तस्य सा, तन्नार्याः परिभाविताऽपि च शुभा स्यात् किन्तु नो कर्हिचित् ॥
एक गृहस्थ ने मुनि को कहा - 'महाराज ! यह श्रेष्ठ आम्रफल है । आप इसे ग्रहण करें ।' मुनि बोले- 'तुम्हारी भावना अच्छी है, परन्तु यह फल सचित्त है । ऐसा सचित्त फल हमें लेना नहीं कल्पता ।' यह सुनकर एक तत्त्वज्ञ शिष्य ने कहा - 'महाराज ! यदि अकल्पनीय वस्तु को देने की भावना शुभ है तो साधु को स्त्री अर्पित करने की भावना भी शुभ होनी चाहिए । ऐसा कभी हो नहीं सकता ।
१३१. चर्चाभिर्विदितो जडोयमधिकः कैश्चित्तथापि प्रभुर्नुन्नो बोधयितुं तमेव तमवक् योग्यो न मे भासते । दालिर्मुद्गमकुष्टकस्य च भवेत् गोधूमधान्यस्य नो, तद्वद् मव्यविवेकिनो गमयितुं शक्तास्तदन्ये न हि ॥
स्वामीजी किसी से चर्चा कर रहे थे, तब उन्होंने देखा कि इसकी बुद्धि कमजोर है, यह जड़ है । लोगों ने कहा—स्वामीजी ! आप इसे समझाइए । तब स्वामीजी बोले- मूंग, मोठ और चने की दाल हो सकती है, पर गेहूं की दाल नहीं हो सकती । इसी प्रकार जिसके कर्म का लेप कम होता है और जो बुद्धिमान होता है वह समझ सकता है किंतु बुद्धि से हीन आदमी समझ नहीं सकता ।"
१. भिदृ० २६२ ।
२ . वही, १५७ ।