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पञ्चदशः सर्गः
लिए मननीय है ।
स्वामीजी ने कहा - ' अनाज का कण पड़ा हुआ देखकर किसी साधु
से गुरु ने कहा- यह अनाज का कण पड़ा है, इस पर पैर मत रखना । तब वह बोला - स्वामीनाथ ! पैर नहीं रखूंगा। थोड़ी देर बाद इधर-उधर घूमता हुआ आया और उस अनाज के कण पर पैर रख दिया। गुरु ने कहा- अब यदि पुनः त्रुटि हो जाए तो तुम्हें विगय का वर्जन करना होगा । वह सावधान हो गया । पर पुनः विस्मृति तथा असावधानी के कारण उसका पैर बार-बार धान्यकण पर पड़ता गया । उसकी इच्छा नहीं थी कि वह धान्य कण पर पैर रखे और न विकृतिवर्जन के प्रति उसका अनुराग था । किंतु कर्मों के उदय से, मन की अस्थिरता से और विस्मृति के कारण उस धान्य-कण का बार-बार स्पर्श होता था। किंतु दोष सेवन की उसकी तनिक भी इच्छा नहीं थी, दोष की स्थापना भी नहीं थी, अतः उसकी नीति शुद्ध थी । इस प्रकार की स्खलना करने वाले शुद्ध नीति वाले मुनिगण यहां शाश्वत प्राप्त होते हैं ।
जो निर्ग्रन्थ अपने संयम को शबल - चितकबरा किए हुए हैं, तथा जो दोषों का बार-बार सेवन करते हैं वैसे मुनि तथा अन्य मुनि जिनकी नीति शुद्ध है, वे अन्यान्य विशिष्ट मुनियों के साथ रहते हैं । परन्तु जो जानबूझकर शबल तथा प्रतिसेवी होते हैं वे वस्तुतः दोष की स्थापना करने वाले होते हैं । उनके साथ सद् आचार वाले साधुओं को रहना नहीं कल्पता । उनके साथ संभोज का व्यवहार नहीं हो सकता ।'
१२८. आदातुर्यदि पातकं स्फुटतरं दातुस्तदेव ध्रुवं,
प्राक् सर्वाssग्रहणप्रमोक्षणफलं तस्यैव कृत्स्ना क्रिया । शस्त्रक्षेप्तृ सहायका इव सदा नो तत्फलैर्वञ्चिता,
वक्तुं नार्हति शस्त्रमुक् च यदहं तद्द्घातभागी न हि ॥
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जहां लेने वाले को पाप लगता है तो देने वाले को निश्चित ही पाप लगेगा । दाता सबसे पहले देने के लिए वस्तु को ग्रहण करता है, अर्जन करता है, अर्पण करता है और फिर आरम्भजन्य प्रवृत्तियां चालू होती हैं । इन सब पापमय क्रियाओं का संचालक अर्पणकर्त्ता है शस्त्र-निर्माता शस्त्र चलाने वाले का सहयोगी बनता है । वह उस हिंसा के फल से वंचित नहीं रह सकता । शस्त्रनिर्माता और शस्त्रप्रयोक्ता — दोनों यह नहीं कह सकते कि हम उससे होने वाली हिंसा के भागी नहीं हैं । इसी प्रकार असंयमी को असंयमवर्धक साधन देने वाला दाता उस पाप से बच नहीं सकता । "
१. भिदृ० २१४ । २. वही, ३ ।