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पञ्चदशः सर्गः
१६३ १२०. कश्चित् पुण्यरुचिर्व्यनक्ति न शुभा श्रद्धा हि मिश्रस्य भोः,
कस्यकं स्फुटितं च चक्षुरमलं कस्य द्वयं स्वाम्यवक् । वैराग्यान्वितभारती स्वयमहो वैराग्यमुत्पादयेदार्टीभूतकुसुम्मकेन सुतरां रज्यन्त एवाऽपरे ॥
(क) उस समय दो प्रकार की मान्यताएं प्रचलित थीं-पुण्य की मान्यता और मिश्र (पुण्य-पाप) की मान्यता । एक बार पुण्य की मान्यता वाले ने स्वामीजी से कहा- मिश्र की मान्यता अच्छी नहीं है। स्वामीजी बोले-भाई ! किसी की एक आंख फूटी है और किसी की दोनों । न पुण्य की मान्यता उचित है और न मिश्र की मान्यता । पुण्य की मान्यता वालों की एक आंख फूटी है और मिश्र की मान्यता वालों की दोनों।'
(ख) वैराग्य से ओतप्रोत वाणी ही वैराग्य को उत्पन्न कर सकती है। कुसुंभा स्वयं गलकर ही दूसरों पर रंग चढ़ा सकता है। इसी प्रकार वैराग्य से ओतप्रोत मुनि ही दूसरों को विरक्ति के पथ पर अग्रसर कर सकते हैं। १२१. काक्वा केन मुनीश्वरो निगदितः किञ्चित् सचित्तरमा,
संघट्टोपगतात् कथं कथमपि स्वागच्छतो दित्सया। नावत्तेऽथ परन्त्वनावृतमुखायोरसंख्याऽसुमन्,
निघ्नद्दातृकरान्नु लाति खलु तच्चित्रं ततः प्रोच्यते ॥ १२२. हेलानिन्दनखिसनावमननलीवानाद यदा,
कल्पेत ग्रहणं मुनेननु स कि संवीत बक्त्रोऽर्पयेत् । तद्वत् तत् यदि वाऽभ्युपेत वितरेत् सत्काययोगस्तदा, सोऽशुद्धो नहि युज्यते वितरणं कायस्य कार्य यतः। (युग्मम्)
किसी ने व्यंग्य की भाषा में स्वामीजी से कहा-महाराज ! कोई श्रावक साधु को दान देने की इच्छा से आता है और यदि सचित्त वस्तु का किंचित् भी स्पर्श हो जाता है तो उस व्यक्ति के हाथ से कुछ भी दान नहीं लिया जाता । यह ठीक है, किन्तु खुले मुंह बोलने वाला व्यक्ति, जो वायुकाय के असंख्य जीवों का हनन करता है, उसके हाथ से दान ले लिया जाता है। यह क्या संगत है ?
___ इसके समाधान में स्वामीजी ने कहा कुछेक जैन मुनि ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं कि यदि दाता निंदा, खिसना, अपमान, गाली तिरस्कार पूर्वक दान देगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। प्रश्न होता है कि क्या गाली देने वाला मुंह पर कपड़ा लगाकर यतनापूर्वक गाली देगा ? दान देने में बैठा १. भिदृ. १२६ । २. वही, २२४ ।