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श्रीमहाकाव्यम्
तू तो भीखणजी की निन्दा ही निन्दा करती है, फिर तेरा पति कैसे मर गया ? '
तब पास में खड़ी बहिन ने कहा- 'भीखणजी ये ही हैं ।' तब वह लज्जित होकर वहां से भाग गई । '
११८. ये विद्रोहकराः परस्परमिहेज्यं वीक्ष्य सम्मील्य ते, सर्वे द्वेषकरा भवन्ति युगपद्धेतुः प्रदत्तोत्र तैः । अन्योन्यानिशघोरयोद्ध भषणा दृष्ट्वा सघष्टं गजं, ते वुक्कन्ति न किसमे समुदिताः किन्तु प्रजायेत किम् ॥
एक बड़े संप्रदाय के साधु विभिन्न छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए । परस्पर विद्रोह करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं । परन्तु जब भीखणजी से विरोध करने का अवसर आता है तब वे सब एक होकर विरोध करने लगते हैं । किसी ने पूछा - इसका कारण क्या है ? तब स्वामीजी ने कहा एक मोहल्ले के कुत्ते दूसरे मोहल्ले के कुत्ते से सदा लड़ते रहते हैं । दूसरे को अपनी सीमा में आने नहीं देते । परन्तु जब घंटाधारी हाथी उधर से गुजरता है तब वे सब एक होकर उसके पीछे भौंकते रहते हैं । उनमें कभी एकता नहीं थी, पर हाथी के आने पर वे एक हो जाते हैं । परन्तु इतना होने पर भी हाथी का क्या बिगड़ता है ?"
११९. दृष्ट्वा स्वान् रुदतो ममापि मुनिराडाऽऽयाति यद् रोदनं, दीक्षा ग्राहक माह मोहितमते ! त्वं नासि योग्यो यतः । मातुर्मन्दिरमोचिनीं प्ररुदतीं नव्यां वधूं वीक्ष्य यः, कान्तोऽपि श्वसुरालयं प्रतिगतो रुद्याच्च किं तद् वरम् ॥
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा - 'महाराज ! मैं दीक्षा लेना चाहता हूं, परन्तु मेरे में एक कमजोरी है । जब मैं अपने सगे-संबंधियों को रोता देखता हूं तो मुझे भी रोना आ जाता है ।' आचार्य भिक्षु ने तब उस मोहग्रस्त श्रावक से कहा - इस दृष्टि से तुम दीक्षा के योग्य नहीं हो। देखो दामाद अपनी पत्नी को लेने ससुराल जाता है । तब पीहर को छोड़ते समय वह नई वधू रोती है । यह सामान्य बात है । परन्तु उसको रोती देखकर दामाद भी रोने लग जाए तो कितना बुरा लगता है ? इसी प्रकार कोई साधु बनता है तो सगे-संबंधी रोते हैं' यह तो उनका अपना स्वार्थ है, परन्तु उनके साथसाथ दीक्षार्थी भी रोने लग जाए तो कितना बुरा लगता है ? "
१. भिदृ. ३८ ।
२ . वही, २४१ ।
३. वही, ३७ ।