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ग्यारहवां सर्ग ६४. अनुश्रुतेविश्रुतमत्रवृत्तं, विश्वासयोग्यं विवृणोमि किञ्चित् । .. प्रधानदेवालयगोपुरस्य, बाह्ये ह्यभूतां वरवेदिके द्वे ॥
अब मैं अनुश्रुत कुछ विश्वास योग्य घटनाओं का उल्लेख करता हूं। उस प्रधान देवालय के गोपुर के बाह्यभाग में दो वेदिकाएं थीं।
६५. एका च सव्ये व्यलसद् द्वितीया, सव्येतरे मन्दिरमण्डपेषु । वेद्यां विना त्वामिह दक्षिणस्यां, स्थेयं न चान्यैरपि वामिकायाम् ॥
मन्दिर के मंडप में एक वेदिका बाईं ओर तथा दूसरी वेदिका दाई ओर थी। देव ने आचार्य भिक्षु से कहा-आचार्यवर ! दाईं ओर की वेदिका पर आपके अतिरिक्त कोई न बैठे और बाई ओर की वेदिका पर तो कोई बैठे ही नहीं।
६६. यदा यदोषासु विदिकायां, स्वाध्यायकर्ताऽभवदार्य एषः। तदा तदाऽसौ वरिवस्यया च, वेदी परामध्यवसत् सुरोऽपि ॥
जब-जब स्वामीजी उषाकाल में दांई वैदिका पर बैठकर स्वाध्याय करते तब बाईं वेदिका पर बैठकर देव भी उनकी उपासना करता था।
६७. रंरम्यमाणोऽच्छमहावतेषु, मरालसम्राडिव मानसेषु । विरम्यमाणोऽपगुणः समस्तहंसो यथा पल्वल'पङ्कपङ्कः ॥
वे महामुनि महाव्रतों में वैसे ही रमण करने लगे जैसे मानसरोवर में राजहंस और वे सभी प्रकार के दोषों से वैसे ही दूर रहने लगे जैसे गढे के कर्दम से हंस। ६८. सद्बोधसध्यानविधौ निमग्नः, सुधापयोधाविव मत्स्यराजः। आत्मकसंसाधनसिद्धसिद्धो, विबद्धशुद्धात्मविशुद्धलक्ष्यः ॥
वे महायोगी सद्ज्ञान एवं सद्ध्यान में वैसे ही निमग्न रहने लगे जैसे क्षीर समुद्र में मत्स्यराज । वे एकमात्र आत्मविशुद्धि के लक्ष्य से बंधे हुए थे। वे आत्मसिद्धि की साधना में सिद्धहस्त हो रहे थे। ६९. सभिक्षुभिक्षुर्गणभिक्षुरेष, रेजे विरेजे परमात्मयोगी । ..
सन्तोऽपि सर्वे समशीलशीला, आराधनायां सुकृतस्य लीनाः॥
१. पल्वलः-गढा (वेशन्तः पल्वल:-अभि० ४।१६१)