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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
किसी ने अपनी झूठी प्रशंसा करते हुए सवाईराम से कहा- हमने तेरापन्थी साधुओं को परास्त कर दिया ।
तब सवाईराम बोला- 'दो के मध्य झगड़ा होने पर एक आदमी अपने घर को कृष्णार्पण कर देता है । दूसरा कलह करने से डरता है, अपने घर की सुरक्षा करता है। इसी प्रकार तेरापंथी साधु अपने साधुपन की सुरक्षा करते हैं । वे अंट-संट बोलने से भय खाते हैं। तुमने अपना घर कृष्णार्पण कर रखा है । तुम्हारे सामने अपने साधुपन की सुरक्षा का प्रश्न नहीं है । इसलिए जैसा मन में आता है, वैसा तुम बोलते हो ।' यह कहकर उसने उसको निरुत्तर कर दिया ।
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४. द्रव्याचार्य विशिक्षिताऽथ गृहिणी निष्काशिता सद्गुरु, हट्टात् याचितवांस्ततोन्यविपण पाल्यां च कस्याथ स । प्रोक्तस्तेन मतो न पूर्वविपणिर्भग्नोतिवृष्टेरहो,
मिक्षुस्तं ह्य पकृत्करं विदितवान् कीदृक् क्षमासागरः ॥
पाली में भीखणजी स्वामी आज्ञा ले एक दुकान में ठहरे। एक जैनी ने उस दुकान वाले के घर जाकर उसकी पत्नी से कहा - 'ये कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक तुम्हारी दुकान नहीं छोड़ेंगे ।'
तब उस बहिन ने स्वामीजी से कहा - 'तुम्हें यहां रहने की मेरी आज्ञा नहीं है ।'
तब भिक्षु ने कहा - 'चातुर्मास में भी तुम कहोगी तब हम वहां से चले जायेंगे ।'
उस समय वह बहिन बोली- 'मुझे तुम्हारे जैसे ही कह गए हैं कि चातुर्मास शुरू होने पर वे यहां से नहीं जायेंगे । इसलिए मेरी आज्ञा नहीं है ।'
उसके मना करने के बाद आचार्य भिक्षु स्वयं गोचरी गये । उदयपुरिया बाजार में एक दुकान की दूसरी मंजिल की याचना की । उसके प्राप्त हो जाने पर आप स्वयं वहां बैठ गए, साधुओं को भेज उपकरण मंगवा लिए । दिन में वे उस दूसरी मंजिल पर रहते और रात को नीचे दुकान में व्याख्यान देते । परिषद् काफी जुट जाती । बहुत लोगों ने सम्बोधि प्राप्त की । आचार्यजी ने शय्यातर ( दुकान मालिक ) से बहुत कहा- तुमने इन्हें जगह क्यों दी? ये अविनीत हैं, निह्नव ( मिथ्या प्ररूपणा करने वाले ) हैं ।'
तब उसने कहा - 'कार्तिक पूर्णिमा तक तो मनाही नहीं करूंगा ।' कुछ दिनों बाद बहुत वर्षा हुई। स्वामीजी जिस दुकान में पहले ठहरे १. भिदृ० २ ।