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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
(क) एक बार गैंबीराम नामक चारण भक्त स्वामीजी के पास आकर बोला – महाराज ! मैं भक्तों को सदा लापसी खिलाता हूं । इस कार्य में क्या होता है - धर्म या पुण्य ?' आचार्य भिक्षु बोले- 'जितना गुड़ डाला जाएगा उतना ही मीठा होगा।' इस उत्तर से वह बहुत खुश हुआ । जिन विरोधियों ने उसे वितंडा करने भेजा था, वे अनमने हो गए ।'
(ख) भीखनजी का धर्मसंघ चल रहा था । कई वर्षों तक संघ में साध्वयां नहीं हुई । तब किसी ने कहा- 'भीखनजी ! आपके तीन ही तीर्थं हैं- श्रावक, श्राविका और साधु ।' स्वामीजी बोले- 'लाडू खंडित है, पर है 'चोगुणी' का । यह अपने स्वाद से खाने वाले को अत्यधिक आह्लादित कर देता है।
२४. पानेऽपां वधकस्य धार्मिक विशश्चाघाभिधानादुभो,
तुल्यौ तेऽभिमतेन तत्र मुनिराट् प्राख्यत्तथंवं हि चेत् । वैश्याया जलपानतः किमु भवेत् मातुश्च भाषस्व सोवोचत् पापमहो तदा तव मतात् साम्यं द्वयोरप्यभूत् ॥
स्वामीजी के पास एक व्यक्ति आकर बोला- 'आप श्रावकों को देने में भी पाप कहते हैं और कसाई को देने में भी पाप कहते हैं । इस दृष्टि से आपने श्रावक और कसाई को समान गिन लिया ।'
तब स्वामीजी बोले- 'ओटोजी ! तुम्हारी मां को लोटा भर कर सजीव पानी पिलाने से क्या होता है !' उसने कहा- 'पाप होता है ? ' . 'अच्छा, वेश्या को सजीव पानी पिलाने से क्या होता है ।' उसने कहा - 'इसमें भी पाप होता है ।'
तब स्वामीजी बोले- 'अरे ओटोजी ! तुमने मां और वेश्या को समान गिन लिया ?' वह लज्जित-सा होकर चला गया ।
२५. एकाक्षव्यपरोपणैर्यदि वृषः पञ्चाक्षसंरक्षणे,
वनक्तं बलतोपहृत्य ददनेऽप्येवं न कि जायते । कृम्यादिप्रमयैरपीह खलु तत् पुण्याऽधिकत्वेन च, नो चेत् तत्र तवेत्थमेव सकले कि नो समालोच्यते ।,
(क) किसी ने कहा - 'एकेन्द्रिय जीव को मारकर पंचेन्द्रिय जीव का पोषण करने से लाभ होता है ।' तब स्वामीजी बोले- 'किसी ने तुम्हारा अंगोछा छीनकर ब्राह्मण को दे दिया । उसमें लाभ है या नहीं ?'
२. भिदृ० २० ।
२. वही, २२ । ३. वही, २९ ।