________________
पञ्चदशः सर्गः
१३९ लियापन मिट सकता है ? क्या वह इस प्रक्रिया से पुनः साहुकार की पदवी पा सकता है ? कभी नहीं।
नियमों से भ्रष्ट मुनि गृहस्थ से अच्छा कैसे हो सकता है ? गृहस्थ स्वीकृत अणुव्रतों की अनुपालना भलीभांति करता है। व्रतों की पालना करने वाले से व्रतभ्रष्ट कभी अच्छा नहीं हो सकता। ८४. नो सम्यक् प्रतिपालयेयुरनिशं ये साधवः साधुतां,
साक्षात् केवलवेषभूषणभरास्ते कूटनाणोपमाः। ताम्रोत्थः पणकोऽपि राजत इह श्रेष्ठः सदा रूप्यकः, किन्तु क्वापि कदापि सुष्टु भुवने नो कूटकार्षापणः॥
जो मुनि अपनी साधुता का परिपालन नितान्त सम्यकप से नहीं करते वे केवल वेश और भूषा का भार ढोते हैं तथा वे हैं खोटे सिक्के के सदृश । तांबे का सिक्का अच्छा है, चांदी का रुपया भी श्रेष्ठ है परन्तु कभी भी, कहीं भी खोटा कार्षापण अच्छा नहीं माना जा सकता। पूरा विवरण इस प्रकार है -
"एक साहूकार की दुकान में सबेरे कोई तांबे का पैसा लेकर आया और कहा-शाहजी ! पैसे का गुड़ है ? तब दुकानदार ने उस पैसे को नमस्कार कर उसे ले लिया। उसने सोचा-सबेरे-सवेरे तांबे के सिक्के से व्यवसाय का प्रारम्भ हुआ है। दूसरे दिन वह रुपया लेकर आया और कहा-शाहजी ! रुपये की रेजगी है ? तब दुकानदार ने रुपये को नमस्कार कर उसे ले लिया । रेजगी गिन उसे दे दी। सेठ मन में प्रसन्न हुआ-आज चांदी के सिक्के का दर्शन हुआ।""
तीसरे दिन वह खोटा रुपया लेकर आया और बोला-शाहजी ! रुपये की रेजगी है ? तब वह दुकानकार प्रसन्न होकर बोला-मेरी दुकान पर कल वाला ही ग्राहक आया है। उसने रुपया हाथ में लेकर देखा, तो वह खोटा था। भीतर तांबा और ऊपर चांदी। वह उस रुपये को फेंककर बोला- सबेरे-सबेरे नकली रुपये का दर्शन हुआ।
ग्राहक बोला-शाहजी। आप नाराज क्यों हुए ? परसों मैं पैसा लाया था, तब आपने ताम्बे के सिक्के को नमस्कार किया था। कल मैं रुपया लाया था, तब आपने चांदी के सिक्के को नमस्कार किया था। इसमें तो तांबा और चांदी-दोनों हैं, इसलिए इसे आप दो बार नमस्कार करें।
सेठ बोला-परसों तो अकेला तांबा था, वह ठीक है। कल अकेली चांदी थी, वह और अधिक ठीक है। वे दोनों अलग-अलग थे। इसलिए नकली नहीं थे। पर इसमें भीतर तांबा और ऊपर चांदी का झोल है, इसलिए यह खोटा है । यह किसी काम का नहीं।