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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् (४) गुड़, चीनी पर मक्खियां आती हैं। उन मक्खियों को खाने के लिए अन्य जीव आता है । उसे रोकने से मक्खियां बच जाती हैं।
(५) एक बर्तन में कई दिनों का अनछाना पानी पड़ा है । उसे पीने के लिए आने वाली गाय को रोकने से पानी तथा तदाश्रित जीव बच सकते हैं ।
(६) पानी से भरे तालाब में पानी के जीवों के अतिरिक्त अन्यान्य अनेक त्रस जीव होते हैं। उस तालाब में आने वाली गायों, भैंसों को रोकने से अनेक जीव बच जाते हैं ।।
(७) उकरडी पर अनेक पक्षी जीवों को चुगने आते हैं । उन्हें रोकने से उन जीवों का बचाव हो जाता है।
इन सात उदाहरणों में से किसी एक-दो पर जीवरक्षा का प्रयत्न करना तथा शेष पर नहीं, यह यथार्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । इस तरह लोकप्रिय विषयों में धर्म या पुण्य कह देना व अन्यत्र अपनी मान्यता के अनुसार जीव रक्षा होते हुए भी लोकप्रिय न होने के कारण, धर्म या पुण्य न कहकर चुप्पी साध लेना कहां का न्याय है ? इस तरह के जनरञ्जन को छोड यथार्थ को स्वीकार कर सभी काय के जीवों को अभय दान देना ही श्रेष्ठतर है।
९०. अम्मः पानतया वृषो यदि तदा मद्यादिपानादपि, .
सर्वत्राङ्गभूतां समानविधिना रक्षा समीक्षा समा। रक्षायां वदताद् वृषं च यदि वा सत्साधनासंश्रयं, द्वैविध्यादविधोत्पथं च हरता घण्टापथो गृह्यताम् ॥
सभी प्राणियों की समान विधि से रक्षा और रक्षा का चिन्तन उत्तम है, ऐसा सिद्धान्त मान्य होने पर भी एक स्थिति में पुण्य मानना और एक स्थिति में न मानना युक्तिसंगत नहीं। जैसे-प्यास से व्याकुल व्यक्ति को कच्चा पानी पिलाकर बचाने में पुण्य मानना और मद्य आदि के बिना न रह सकने वाले व्याकुल व्यक्ति को मद्य आदि से बचाने में धर्म-पुण्य न मानना । जबकि जीव रक्षा का दृष्टिकोण दोनों जगह समान है। यदि यह कहा जाए कि जीव रक्षा तो समान है, पर मद्य आदि पान कराने का साधन सत् साधन नहीं है। अतः ऐसे साधन से धर्म-पुण्य नहीं हो सकता। यह कहना भी उचित नहीं, क्योंकि पानी पिलाने में भी तो यही बात है। पानी के जीवों की हिंसा तथा असंयम का पोषण, इस तरह हिंसा एवं असंयम का पोषण करने वाला साधन भी सत्साधन कैसे कहा जा सकता है ? अतः इस दुविधाजनक उन्मार्ग को छोड़कर शुद्ध साध्य-साधन वाले राजमार्ग को अपनाना चाहिए।