________________
१५७
पञ्चदशः सर्गः . की जड़ में अग्नि डालने से नीम और आम दोनों जल जाते हैं, जैसे किसी ने आजीवन ब्रह्मचर्य स्वीकार किया, उसने असंयम को जला डाला, प्रश्नकर्ता के अनुसार उसके संयम और असंयम दोनों जल जाने चाहिए।'
(ख) कुछ कहते हैं-सावद्य दान के विषय में पुण्य, पाप और मिश्र होता है, यह नहीं करना चाहिए, इसलिए हम उसके विषय में मौन रखते हैं।
तब स्वामीजी ने कहा-'इनका मौन मौनी बाबा का मौन है। कोई मौनी बाबा एक गांव में आया । उसके साथ बहुत सारे चेले थे। वे आटा, घी, गुड़ इत्यादि मुख से बोलकर नहीं मांगते, किन्तु संकेत जताकर मांगते थे । अंगुलियों को ऊंचा कर संकेत करते थे-इतना किलो आटा, इतना किलो घी, इतनी दाल और इतना गुड़ । जब गांव के चौधरी और पटवारी कम देना चाहते हैं तब बाबा अपने चेलों को हूंकार से संकेत कर घरों और दुकानों के छप्पर तुड़वा देता है । तब लोग बोले-यह मौनी बाबा मौन के संकेत की भाषा बोलता है और हूंकार से ही छह काया के जीवों को मरा देता है । यह अनबोला रहकर ही उपद्रव कर रहा है, तो बोलने पर न जाने क्या कर डालता ? स्वामीजी बोले-जैसा उस मौनी बाबा का मौन था वैसा ही इनका सावद्य दान के विषय में मौन है। ये मुख से तो मौन कहते जाते हैं और श्रावक-श्राविकाओं को भोजन कराने में पुण्य और मिश्र की आम्नाय-मान्यता बतलाते हैं । लड्ड खिलाकर दया पालने की प्ररूपणा करते हैं।"
(ग) वर्तमान काल में दिए और लिए जाने वाले सावद्य दान के विषय में पूछने पर भी मुनि को मौन रहना चाहिए, उसमें पुण्य है या पाप ऐसा नहीं कहना चाहिए । इस विषय पर स्वामीजी ने कहा-जब हलवाणी के दोनों किनारे गर्म हो जाते हैं, तब भी उसका मध्य भाग ठंडा रहता है। यदि कोई व्यक्ति उस हलवाणी को इस छोर से अथवा उस छोर से पकड़ना है तो उसके हाथ जल जाते हैं और यदि वह उसको मध्य से पकड़ता है तो के जलने का भय नहीं रहता। इसी प्रकार सावद्य दान में पुण्य कहने से छह काय जीवों की हिंसा का वह भागी होता है और पाप कहने से अन्तराय का भागी होता है। इसलिए वर्तमान काल में हलवाणी के ठंडे मध्यभाग की भांति मौन रहना ही श्रेयस्कर है, जिससे किसी भी प्रकार की दोषापत्ति नहीं होती।
१.भिद० २२० । २. वही, २३०॥ ३. वही, २३५ ।