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श्रीभिक्षमहाकाव्यम्
१०८. चर्चायां प्रतिकूलभाषणमवेक्ष्याख्यच्च कश्चित् प्रभु
मेतेनालमथो जजल्प तमृषिर्वालः पितुर्मुर्द्धनि । दद्यात् कूर्चविकर्षकोऽपि स भवेद् वृद्धत्वसुश्रूषकः । सम्बुद्धोप्ययमेव भक्तिनिरतः पश्चात् सदा सेवकः ॥
एक व्यक्ति स्वामीजी से चर्चा करते समय अंटसंट बोलता था। तब स्वामीजी से किसी ने कहा- 'महाराज ! अंटसंट बोलता है, उससे आप क्या चर्चा करते हैं ?'
__ स्वामीजी बोले-- 'छोटा बच्चा जब तक नहीं समझता है, तब तक वह अपने पिता की मूंछ को खींचता है और उसकी पगड़ी को भी उतार फेंकता है । किन्तु समझ आने के बाद वही अपने पिता की सेवा-चाकरी करता है । इसी प्रकार यह जब तक साधुओं के गुणों को नहीं पहचानता, तब तक अंटसंट बोलता है । गुण की पहिचान होने के बाद यही भाव से भक्ति करेगा और सेवक बन जाएगा।'
१०९. वताव्रतसेकतो व्रतमहो ! तीव्रताशोषतः,
शुष्यात् सुव्रतमंहिपोग्बततहस्सेकाहेतोरिव । सावद्यार्पणमौनकृत्सु विहितो हेतुर्मुनेौनिनो, मौनं तत्र हि वर्तमानविषये बीजं हलप्रान्तिकम् ॥
अहो ! आश्चर्य है कि अव्रत के सिंचन से यदि व्रत बढ़ता है तो अव्रत के शोषण से व्रत का भी शोषण होना चाहिए । अव्रत के सिंचन से व्रत वैसे ही बढ़ता है, जैसे एक नीम पर आम का वृक्ष लग गया। अब नीम को सींचने से आम का पेड़ भी बढ़ेगा ही। इस बात पर स्वामीजी ने कहा
(क) कुछ कहते हैं-श्रावक के अव्रत का सिंचन करने से व्रत बढ़ता है। उस पर वे कुहेतु का प्रयोग करते हैं-नीम के पेड़ में आम का पेड़ पैदा हो गया । नीम की जड़ में पानी सींचने से नीम और आम दोनों ही प्रफुल्लित हो जाते हैं । इसी प्रकार श्रावक के अव्रत का सिंचन करने से व्रत, अव्रत दोनों बढ़ते हैं। .
तब स्वामीजी बोले-इस प्रकार असंयम का सिंचन करने से संयम बढ़ता है, तो उसके अनुसार श्रावक यदि अब्रह्मचर्य का सेवन करता है, वह असंयम का सेवन करता है, उससे संयम भी पुष्ट होना चाहिए। और नीम
१. भिदृ० २८७ । २. हलप्रान्तिकम् -हलवाणी (दागने के लिए प्रयुक्त लोहदंड) के दोनों
छोर।