________________
पञ्चदशः सर्गः
११२. द्रव्यं स्थानकहेतवेऽपितमिदं तत्राधिवस्तुः सदा,
कोशो दुर्गतो यथा निवसतां दुर्गेऽधिकाराद् ध्रुवम् । कूर्मापुत्रककेवली प्रकुरुते राज्यं प्रभो ! तत् कथं, साङ्गत्यं न तदाह मोहवशतोऽन्यो मोहसंक्षीणतः ॥
(क) कोई स्थानक के लिए रुपये देने की घोषणा करता है । तब स्वामीजी बोले – 'ये रुपये जो स्थानक में रहते हैं, उन्हीं मानने चाहिए ।' इस विषय को समझाने के लिए स्वामीजी ने दृष्टांत दिया- 'अमुक गढ़ में इतना खजाना है । खजाना गढपति का ही होता है । इसी प्रकार स्थानक के निमित्त जो रुपये हैं, वह परिग्रह स्थानक में रहने वालों का ही मानना चाहिए ।"
१५९
(ख) सं. १८५५ की घटना है । स्वामीजी ने चार साधुओं के साथ खेरवा में चौमासा किया। वहां पर्युषण के दिनों में कुछ श्रावक गच्छवासियों के पास व्याख्यान सुन वापिस स्वामीजी के पास आये और कहने लगेस्वामीनाथ ! आज हमने उपाश्रय में व्याख्यान सुना, उसमें ऐसी बात कही गई - कूर्मापुत्र ने केवली होने के बाद छह मास तक राज्य किया था । उस अवधि में कुछ साधु उनके पास आकर खड़े हो गए, पर उन्होंने वन्दना नहीं की ।
तब कूर्मापुत्र बोले- मुझे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, फिर तुम बन्दना नहीं करते हो, इसका क्या कारण ? तब साधु बोले-आप केवली हैं, परंतु आप गृहस्थ के वेष में हैं, इसलिए हमने वंदना नहीं की ।
तब कूर्मापुत्र बोला- तुमने ठीक कहा । अब मैं इस बात को समझ गया हूं ।
यह बात हमने उपाश्रय में सुनी है। क्या यह सच है ? तब स्वामीजी बोले- इस बात की संगति नहीं बैठती। जो राज्य भोगता है वह मोहकर्म का उदय है और केवली मोहकर्म को क्षीण करके होता है । केवली होने के बाद राज्य कैसे भोगेगा ? "
११३. धीरं टोडरमल्लसाधुरवदद् व्याख्याति भिक्षुस्त्विदं,
स्वल्पागः क्षयति व्रतानियतिनां तच्चेच्च पार्श्वप्रभोः । साध्व्यः कज्जलधावनाऽर्भकगणक्रीडादिदोषादिता इन्द्राण्यः प्रविभूय चैकभवतो गन्त्र्यः शिवं ताः कथम् ॥
१. भिदृ० २१६ । २. वही, २१८ ।