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९३. नीरे क्षिप्तपणो निमज्जति यथा मारेण नॅजेन संप्राप्तः सोऽपि विशालपात्रलघुतामुन्मज्जति क्षिप्रतः । अंहःकर्म गुरुत्वतो बुडति यो जीवो भवाब्धौ तथा, धर्मात् कर्म लघुत्वतस्तरति तं शीघ्रं स एव स्वयम् ॥
श्रोमिनु महाकाव्यम्
किसी ने पूछा- जीव तैरता क्यों है ? डूबता क्यों है ? स्वामीजी बोले- तांबे का पैसा पानी में डालने पर अपने ही भार के कारण डूब जाता. है । उसी पैसे को तपाकर, कूटपीटकर कटोरी बना लेने पर वह पानी में नहीं डूबता । उस कटोरी में पैसा रख देने पर भी वह कटोरी पानी में नहीं डूबती । इसी प्रकार जीव अपने ही पापकर्मों के भार से संसार - समुद्र में डूबता है और तप-संयम आदि धर्म के द्वारा हल्का होकर भाव-समुद्र को शीघ्र तर जाता है । '
९४. बध्वा कोऽपि बलादिह सती प्रौद्घोषिता डिण्डिमस्तापाद्यान् व्यपनाशयिष्यति च कि सम्प्रार्थ्यमानापि सा । आकल्पं किल केवलं परिदधत् साधोः स्वकुक्षिम्भरिः, श्रामण्यं परियालयिष्यति कथं बाह्यार्थलिप्साकुलः ॥
पति मर गया । उसकी अरथी के साथ जीवित पत्नी को बांधकर श्मशान में ले गए और चिता में उसे जला दी । 'यह सती हो गई है । यह ताप आदि को नष्ट करने वाली है' - ऐसी सर्वत्र घोषणा कर दी गई । क्या प्रार्थना करने पर भी वह सती ताप आदि का नाश कर सकती है ? कभी नहीं । जो व्यक्ति केवल अपना पेट भरने के लिए साधु का वेश पहनता है, वह बाह्य अर्थ का लोलुप व्यक्ति श्रामण्य का पालन कैसे करेगा ?"
९५. प्राचीनाः प्रशठाः समेऽपि किमहो कोटीश लक्षेश्वराः,
यद्देवालयकारकाः प्रतिवचस्तमं चेद् धनाढ्यो भवेः । किं तत् कारयिता न वा लपति सोऽवश्यं न बोधो मनाक्, तद्वत् ते धनिकाः परं न विदुरा ज्ञं' ह्यन्यदन्यद्धनम् ॥
किसी ने आचार्य भिक्षु से कहा- आप मंदिर का निषेध करते हैं । प्राचीन काल में करोडपति और लखपतियों ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था। क्या वे सभी मूर्ख थे ? स्वामीजी बोले- 'यदि तुम धनवान् हो जाओ तो मंदिर का निर्माण कराओगे या नहीं ?' उसने कहा - 'अवश्य कराऊंगा ।' स्वामीजी ने फिर पूछा- 'अच्छा, बताओ तुम्हारे में गुणस्थान
१. भिवृ० १४३ ।
२. वही, ३०२ । ३. ज्ञं इति ज्ञानम् ।