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पञ्चदशः सर्गः
९१.
नामान्तर्यवशान्न दोषविगमः सत्कर्मकरणाच्च स, नाम्ना स्थानकमस्तु वान्यदपि किं सर्व समं सत्कृतम् । रामद्वारमुपाश्रयो वृषगृहं हम्यं च सौधादिकं, सर्वाष्येव गृहाणि तेषु विधिवत् सर्वत्र संज्ञान्तरम् ॥
नामान्तर कर देने मात्र से कोई सदोष वस्तु निर्दोष बन जाए, यह संभव नहीं है । दोष का निवारण तो सत्क्रिया से ही हो सकता है । साधुओं के लिए निर्मित स्थान चाहे स्थानक कहलाये या अन्य नाम से पहचाने जाएं वे हैं सभी समान | स्वामीजी ने कहा
जिस प्रकार यति के उपाश्रय, मथेरन (महात्मा) के पोशाल (पाठशाला), फकीर के तकीया, भक्तों के अस्थल, फुटकर भक्तों के मढी, कनफड़ों के आसन, संन्यासी के मठ, रामस्नेहियों के रामद्वारा, जिसे कहीं-कहीं राममोहल्ला कहा जाता है, गृहस्थ के घर सेठ के हवेली, गांव के ठाकुर के कोटड़ी या रावला, राजा के महल या दरबार, साधुओं के स्थानक — इन सब में नाम का अन्तर है, वास्तव में तो सबके सब घर हैं ।'
९२. नौका काष्ठमयीव रन्ध्ररहिता स्वाचारवान् सद्गुरुः, food कुशीलताद्युपगुणी नेपथ्यमात्रान्वितः । पाषाणीव जिनेन्द्रदर्शनपरः पाषण्डिको मूलतः, श्रेयो मध्य तुला शिखेव सुगुरुः सद्देवधर्मेक्षकः ॥
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दिया
(क) गुरु की पहचान के लिए स्वामीजी ने नौका का दृष्टान्त
(१) निश्छिद्र काठ की नौका के समान सु-आचारवान् सद्गुरु होता
है ।
(२) सच्छिद्र नौका के समान वेशधारी कुशील गुरु होते हैं ।
(३) पत्थर की नौका के समान वे साधु हैं जो मूलतः जिनेन्द्रमत को मानने वाले हैं, पर हैं पाषंडी ।
(ख) जैसे तराजू की डांडी में तीन छिद्र होते हैं - एक मध्य में तथा दो दोनों पावों में । यदि मध्य का छिद्र ठीक है तो दोनों पावों के छिद्र ठीक रहेंगे, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार देव गुरु और धर्म इस त्रिपदी में गुरु का स्थान मध्यवर्ती है । यदि गुरु सुगुरु होंगे तो देव और धम का यथार्थ स्वरूप बतलायेंगे । अतः धर्म की यथार्थ पहचान के लिए यथार्थ गुरु ही अपेजित हैं।
१. मि०, २०८ । २. वही, २९३ ।