________________
ज्यामः सर्गः
१४०
कोनसा है ? उपयोग तथा योग कितने हैं ? लेश्या कितनी हैं ?' वह बोला - 'स्वामीजी ! यह तो मैं नहीं जानता।' तब आचार्य भिक्षु बोले-'ऐसे ही वे प्राचीनकाल के धनी हुए होंगे। उनमें भी तत्त्वज्ञान नहीं था। ज्ञान और धन एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं।'
९६. सन्देशानयिना' प्रियो यदभवत् पत्यः प्रियायास्तथा,
प्रेयांसो वयमहतां शुभगिरां संधावणात् सन्नृणाम् ॥ शाकिन्योऽभिजनाश्च बिभ्यतितरां सन्मान्त्रिकेभ्यो यथा, मत्तोऽपि श्लथिता द्विषन्ति यदि वा तत् पृष्ठगा नेतरे ॥
(क) [केलवा में परिषद् जुड़ी हुई थी। वहां के जागीरदार ठाकर मोखमसिंहजी ने स्वामीजी से पूछा-'गांव-गांव की आपके पास प्रार्थनाए आती हैं । अनेक पुरुष और स्त्रियां-सभी आपको चाहते हैं। वे आपको देखकर बहुत प्रसन्न होते हैं उन्हें आप बहुत प्रिय लगते हैं। इसका क्या कारण है ? आपमें ऐसा कौनसा गुण है ?'] तब स्वामीजी बोले- 'कोई साहूकार परदेश गया हुआ था। उसने अपने घर सन्देशवाहक को भेजा और खर्चे के लिए रुपये-पैसे भी भेजे। सेठानी सन्देशवाहक को देखकर बहुत राजी हुई, क्योंकि उसने पति के सारे समाचार सुनाए थे। इसी प्रकार हम अर्हत् भगवान् की पवित्र वाणी लोगों को सुनाते हैं, इसीलिए हम लोगों के लिए प्रिय हैं।
(ख) किसी ने कहा-'भीखनजी!. जहां आप जाते हैं वहां लोग आपका विरोध करते हैं । ऐसा क्यों ?' भीखनजी बोले-जब कोई मांत्रिक गांव में आता है तब डाकिनियां और उनके ज्ञातीजन अत्यंत भयभीत हो जाते हैं, वैसे ही मेरे से वे ही लोग डरते हैं जो शिथिलाचारी हैं तथा जो शिथिलाचारियों के अनुयायी हैं । दूसरे लोग तो प्रसन्न होते हैं।
९७. कश्चिद् व्याहरते मुनि तव मुखप्रोवीक्षणान्निश्चयाद्,
यायाना नरकं तमाह च कुतस्त्वद् वक्रतः सोऽवदत् । स्वर्ग स्वाम्यलपत् तदा दिविगमी चाहं त्वदास्ये क्षणात्, त्वं याता निरयं मदीयमुखतः श्रुत्वा त्रपिष्णुर्गतः॥
१. भिद०, ३९ । २. सन्देशमानेतुं शीलं यस्य, स सन्देशामयी, सन्देशानयी चना व इति “सन्देशानपिना-संदेशवाहक पुरुष । ३. भिवृ० ८७ । ४. वही, २९९ ।