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पञ्चदशः सर्गः
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प्रत्युत्तर देने का प्रयत्न अवश्य करूंगा। परन्तु प्रश्नकर्ता भी अपने आग्रह पर अड़ा रहा । स्वामीजी ने कहा-मान लो, तुम यही प्रश्न पूछ बैठो कि "मैं भव्य हूं या अभव्य" तो इस प्रश्न का उत्तर तो सर्वज्ञ के सिवाय कोई दे ही नहीं सकता। तब मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर दे दूंगा। इस तरह अपने मन में सोचे हुए इस गुप्त प्रश्न की बात स्वामीजी के मुखारविन्द से सुनते ही वह चकित सा रह गया एवं तत्काल स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि मैं इस वाक् छल के द्वारा आपको परास्त करना चाहता था, पर आपने तो मेरे मन की बात ही ताड़ली, यह एक विचित्र बात है। मैंने सोचा था कि अपनी शास्त्रार्थ निपुणता की प्रशंसा में फूलकर यदि वे हर प्रश्न का उत्तर देना मंजूर कर लेंगे तो, मेरा पहला प्रश्न यही होगा कि बताइये “मैं भव्य हूं या अभव्य ? यदि वे कहेंगे कि इसका समाधान तो मेरे पास नहीं है तो मैं उन्हें यह कह कर तिरस्कृत कर दूंगा कि पहले हर प्रश्न का उत्तर देने की डींगें मारी ही क्यों ? अथवा भव्य अभव्य में से एक कहेंगे तो उन्हें यह कह निरस्त कर दूंगा कि भव्याभव्य का निर्णय तो सर्वज्ञ के सिवाय कोई कर ही नहीं सकता तो फिर आप आगम विरुद्ध ऐसा कैसे कह सकते हैं। ऐसा कहकर पराजित कर दूंगा । पर आपने तो मेरे मनोगत भावों को पहले ही जान लिया। धन्य हैं आप-यह कहकर नमन करता हुआ वह चला गया।
८६. केनेनात् परिमोचितः स्वविभवादेको हि चौरस्तदा,
लोका मोचकमास्तुवन्ति च नवस्तेनोपसंहारतः। तत् कौतुम्बिकपीडितप्रतिहतास्ते ह्येव तन्निन्दकाः, स प्रावास्यमितोऽमिताऽसुखगतो लोकोपकारस्त्वयम् ॥
किसी राजा ने दस चोर पकड़े। उन्हें मारने का आदेश दिया। तब एक साहूकार ने प्रार्थना की-महाराज ! यदि आप चोरों को मुक्त कर दें तो मैं प्रत्येक चोर के बदले में पांच सौ-पांच सौ रुपये दूंगा।
राजा ने कहा-चोर बहुत दुष्ट हैं। वे छोड़ने के योग्य नहीं हैं। साहूकार ने फिर कहा-यदि आप सबको मुक्त न करें तो नौ चोरों को तो छोड़ दें।
राजा ने उसकी बात नहीं मानी। इसी प्रकार साहूकार ने बहुत प्रार्थना की। तब पांच सौ रुपये लेकर एक चोर को छोड़ दिया। नगरी के लोग साहूकार को धन्य-धन्य कहने लगे। उसका गुणानुवाद किया-इसने चोर को छुड़ाकर बहुत उपकार किया है। चोर भी बहुत प्रसन्न हुआ।