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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
इस दृष्टान्त के अनुसार पैसे के समान गृहस्थ श्रावक होता है, रुपये के समान साधु होता है और नकली रुपये के समान वेषधारी होता है । जिसका बाहरी वेष तो साधु का और भीतरी लक्षण गृहस्थ का वह खोटे सिक्के जैसा होता है-वह न गृहस्थ में और न साधु में, किन्तु वर्णशंकर जैसा होता है । वह वंदना के योग्य नहीं होता । श्रावक प्रशंसा के योग्य और आराधक होता है । साधु भी प्रशंसा के योग्य और आराधक होता है। पर खोटे सिक्के के साथी वेषधारी आराधक नहीं होते।'
८५. यत् पृच्छामि तदुत्तरेदऽविकलं तत् पृच्छचते स्वामिभि
रुक्तो वक्तुमधीश्वरो नहि तथा ज्ञान हनन्तं प्रभोः। भव्योऽहं यदि वा परोऽहमिति चेत् पृच्छेस्तदा किं ब्रुवे, तत् सर्वज्ञमृते क्षमो न वदितुं श्रुत्वा स्मितः सोऽनमत् ॥
प्रस्तुत श्लोक का विस्तृत अर्थ इस प्रकार है
आचार्य भिक्षु एक विशिष्ट वादलब्धिधारक प्रतिभा के धनी पुरुषार्थी महापुरुष थे। शास्त्रार्थ करने की उनकी एक अनूठी सूझबूझ भी थी। चर्चा वार्ता के प्रसंगों पर अपनी औत्पत्तिकी बुद्धि के कारण प्रतिस्पर्धा करने वाले व्यक्तियों के लिए वे अजेय से बने हुए थे। यही कारण था कि प्रतिपक्षी लोग आपके साथ शास्त्रार्थ करने में सकुचाते थे। एक व्यक्ति को अपने शास्त्रीयज्ञान व वाद-विवाद की निष्णातता पर बड़ा नाज था। किसी ने उसे ताना मारते हुए कहा कि औरों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त करने में क्या रखा है, जब तक कि भीखणजी को निरस्त न किया जाए। इस तरह ईर्ष्यालु प्रतिपक्षियों से प्रोत्साहित हो वह भीखणजी से शास्त्रार्थ करने की सोचने लगा। उसने अपने मन में गहरे चिन्तन-मनन के पश्चात् एक ऐसा प्रश्न संजोया और सोचा कि इस प्रश्न का समाधान भीखणजी निश्चित ही नहीं दे सकेंगे, अतः किसी तरह से शब्दजाल में बांध कर उन्हें यही प्रश्न क्यों न पूछा जाये ? ऐसा सोचकर वह स्वामी भीखणजी के पास आया और बोला कि मैं कुछ जिज्ञासा लेकर आया हूं। स्वामीजी ने फरमाया-पूछो। तब उसने कहा कि स्वामिन् ! मेरा प्रश्न तब ही हो सकता है जब आप यह कह दें कि तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर मैं दूंगा। क्योंकि आप शास्त्रीय ज्ञान के अगाध समुद्र हैं, आपसे कोई बात छिपी हुई नहीं है। प्रशंसा के प्रवाह में नहीं बहने वाले स्वामीजी ने फरमाया कि देखो, भगवान् का ज्ञान अनन्त है, छमस्थ हर प्रश्न का उत्तर दे सके यह सम्भव नहीं, अतः जो मेरे ज्ञान का विषय होगा, मैं उसका
१. भिदृ० २९५ ।