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भोमिभुमहाकाम्यम् . ५१. साधः प्रतिवक्तयुपातधनः सत्साधुकारस्तथा, : नीलाम्यमव्रतपालकः ससमितित्रिगुप्तिभिः स व्रती।
नो वेवक्रमनामगच्छपटुतावक्तृत्वविद्याबलप्रख्यातिप्रतिभाप्रकाशपदमत्सल्लेखकत्वादिकः ॥
एक बार फिर किसी ने पूछा - इन (अमुक अमुक संप्रदायों) में साधु कौन और असाधु कौन ?
तब स्वामीजी बोले- किसी ने पूछा, शहर में साहूकार कौन और दिवालिया कौन ?
___ एक समझदार आदमी ने उत्तर दिया-ऋण लेकर लोटा देता है, वह साहूकार और ऋण को नहीं लौटाता तथा मांगने पर झगड़ा करता है, वह दिवालिया।
___ इसी प्रकार पांच महाव्रतों को स्वीकार कर पांच समिति तथा तीन "गुप्तियुक्त उसकी सम्यक् पालना करता है वह साधु और जो उनकी सम्यक् पालना नहीं करता वह असाधु है । - केवल वेशभूषा, क्रांति, नाम, गच्छ, दक्षता, वक्तृत्वशक्ति, विद्याविकास, प्रसिद्धि, प्रतिभा-प्रकाश, उपाधि तथा लेखन-निपुणता आदि बाह्य विशेषताओं मात्र से कोई साधु नहीं होता।
५२. व्याख्यानं मुनिपस्य तात्त्विकतरं श्रोतुं समागच्छतो, " : रोडन् श्रीजिनपालवज्जिनऋषिश्रद्धेयहेतूनदात् । मिक्षोर्दष्टकथी द्विषां हि शिरसा वन्द्यो यथा भोजको, वेषी पत्थरनाथनामकथकः पूर्वज्ञसारोऽभवत् ॥
(क) आचार्य भिक्षु के व्याख्यान तत्त्वज्ञान से ओतप्रोत होते थे। उन व्याख्यानों को सुनने के लिए आने वाले लोगों को अन्य लोग रोकते थे।
उनको प्रतिबोध देने के लिए स्वामीजी जिनपाल और जिनरक्षित का . उदाहरण प्रस्तुत करते थे । (एक बार जिनपाल और जिनरक्षित एक देवी के
चंगुल में फंस गए। प्रसंगवश देवी ने बाहर जाते समय यह निर्देश दिया कि तीन दिशाओं में यथेष्ट घूमना, पर चौथी दिशा में मत जाना, क्योंकि वहां दृष्टिविष सर्प रहता है । यह बनावटी बोत बताकर निषेध किया, क्योंकि वहां जाने पर देवी की सारी लीला सामने आ जाती । यही स्थिति तात्विक व्याख्यान सुनने का निषेध करने वालों की है ।)
(ख) आचार्य भिक्षु के कुछ विरोधी लोग ऐसे भी थे कि भीखणजी । को दुष्ट बताने वाला उनका शिरमोड़ तथा वन्दनीय बन जाता था। इसको १. भिदृ० १००।