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श्रीमहाकाव्यम्
एक महाव्रत के खण्डित
यह कैसे ? भिक्षु ने रोटी का आटा मिला ।
पांच
कहा – एक भिक्षाचर को शहर में घूमते हुए वह रोटी बनाने लगा । एक रोटी सेंक कर उसने चूल्हे के पीछे रखी, एक रोटी तवे पर थी, एक रोटी अंगारों पर सेंक रहा था, एक रोटी का लोंदा हाथ में था, एक रोटी का लोंदा कठौती में था । उस समय एक कुत्ता आया । वह कठौती में पड़े हुए एक रोटी के आटे के लोंदे को ले गया । उस कुत्ते के पीछे वह भिखारी दौड़ा। वह लड़खड़ा कर नीचे गिर गया। उसके हाथ में आटे का लोंदा था, वह धूल में मिल गया। वापस आकर देखा, तो जो रोटी चूल्हे के पीछे रखी थी, वह बिल्ली ले गई, जो तवे पर थी वह तवे पर ही जल गई तथा जो अंगारों पर थी, वह अंगारों पर ही जल गई । इस प्रकार एक महाव्रत के खंडित होने पर पांचों ही महाव्रत खंडित हो जाते हैं ।'
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किसी ने पूछा - भीखणजी ! आप कहते हैं, हो जाने पर पांचों ही महाव्रत खण्डित हो जाते हैं,
६८. आस्तां रक्षणमङ्गिनां यदि वधस्त्वतो न तत् स्याद् वरं, सहोदानवयानिरूपणतया हिंसाप्रवृद्धिर्यतः ।
रात्रौ चौर्यकरः कथं स दिवसेष्वारक्षिकां मार्गयेज्जह्याच्चौर्यमिदं तदातिकुशलं चास्तां तवारक्षिका ॥
प्राणियों की रक्षा करना तो दूर रहा, तुम प्राणियों का वध करना छोड़ दो, यही श्रेष्ठ है । तुम सावद्य दान- दया का निरूपण करते हो, उससे हिंसा बढ़ती है ।
चोरियां करने लगा । वह
एक चौकीदार चौकीदारी छोड़ रात में लोगों को कहता- मुझे चौकीदारी के पैसे दो चौकीदारी रहने दो, कम-से-कम तुम चोरी करना छोड़ दो। यही अच्छा
।
लोगों ने कहा – तुम्हारी
है ।"
६९. पृष्टा: प्राहुरिहास्ति मौनमथवा तन्मौनमेवेङ्गितं, नो चेत् तत्प्रतिषेधपापवचनं ब्रूयुर्न कि स्पष्टतः । तौष्ण्यं तु न्यगमत्रकाऽपसरणाऽनुष्ठानमाधाय यत्, पार्थक्येन विराजमानवदऽहो ! ते भान्ति तादृग्विधौ ॥
चित्त आदि का दान देने में पुण्य या मिश्र की मान्यता वाले जो मुनि हैं, उन्हें यदि पूछा जाए कि सचित्त आदि देने में क्या होता है तो वे कहते हैं कि इस सम्बन्ध में हमारे मौन है । वास्तव में उनका यह मौन
१. भिदृ० ४१ । २. वही, ६५ ।