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पञ्चदशः सर्गः
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षटकाय के जीवों की हिंसा का संकेत है । यदि उनका यह मौन सचित्त आदि देने का संकेत नहीं है तो उसका वर्तमानेतरकाल में प्रतिषेधात्मक 'पाप' शब्द का स्पष्ट रूप से उच्चारण क्यों नहीं करते ? अहो ! यह आश्चर्य की बात है कि इस प्रकार से उनका यह मौन नीचे के बर्तन को खींच कर अलग हो जाने वाले की तरह ही है, जो कि पुण्य या मिश्र का संकेत भी दे दे और अपने को उससे अलग भी प्रमाणित कर दे।
७०. पाशं गेहिगलस्य मुञ्चति न यः पापी स तं स्वाम्यवक,
त्वं च त्वद्गुरुरेति कोऽपनयते सोप्याह नो मद्गुरुः । त्वद्वाग्भिः किमु ते गुरुवद तथा रुद्धोऽभवत् पृच्छको, यत्कार्य हनुमोद्यमेव न सतां निर्मीयते तत्कथम् ॥
स्वामीजी के पास भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग चर्चा के मिस आते रहते थे। कई जिज्ञासा लिए हुए, कई उन्हें नीचा दिखाने के लिए, कई रागद्वेष के वशीभूत होकर आते थे। प्रतिभा के धनी स्वामीजी उन्हें अपनी
औत्पत्तिकी बुद्धि से ऐसा युक्ति-पुरस्सर प्रत्युत्तर देते कि फिर उन्हें आगे कुछ बोलने का अवकाश भी नहीं मिल पाता ।
__ पाली में स्वामीजी के पास एक भाई आया और द्वेषाभिभूत होकर अंट-संट बोलते हुए कहने लगा-आपके श्रावक ऐसे दुष्ट हैं कि किसी के गले में फांसी लगी हुई हो तो उसके गले से फांसी नहीं निकालते । तब स्वामीजी बोले-भाई ! किसी ने हरे वृक्ष पर फांसी ले ली। उधर से दो व्यक्ति जा रहे थे। दोनों ने उसको देखा। उनमें से एक ने तत्काल उसकी फांसी निकाली और एक ने उपेक्षा की। अब तुम बतलाओ, फांसी निकालने वाला कसा और न निकालने वाला कैसा ? तब वह बोला-'फांसी निकालने वाला महाउत्तम पुरुष, मोक्षगामी, देवलोकगामी, दयावंत आदि-आदि और नहीं निकालने वाला महापापी, महादृष्टी एवं नरक में जाने वाला आदिआदि ।' तब स्वामीजी ने फरमाया-संयोगवश मान लो तुम और तुम्हारे गुरु-दोनों कहीं जा रहे थे। उसी मार्ग में किसी ने हरे पेड़ पर फांसी ले रखी हो, तो बतलाओ, उस हरे पेड़ पर फांसी पर लटके व्यक्ति की फांसी कोन निकालेगा?' तब उसने कहा-'महाराज ! फांसी तो मैं ही निकालगा।' स्वामीजी ने पुनः पूछा-'तुम्हारे गुरु निकालते हैं या नहीं ?' तब वह बोला-'वे कैसे निकालेंगे ? वे तो साधु हैं।' तब स्वामीजी ने फरमायामोक्ष और देवलोक जाने वाले तो तुम ठहरे और तुम्हारी मान्यता के अनुसार नरक जाने वाले तुम्हारे गुरु ठहरे । यह सुन इस प्रश्न का अपने पास में कोई समाधान न देख, वह व्यक्ति मन ही मन लज्जित होता हुआ चुप हो गया।