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३२. केनाप्यान्यमवायि शुद्धमुनये भावावदानंमहापुष्योपार्जनमात्मलाभ ललितं गीतं कृताघक्षयम् । प्रामाद्याच्च पिपीलिका निपतिताः साधोर्मृतास्तत्र तत्, पापांशीह घृताको न तदिव शेयाः समे गोचराः ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
किसी भक्त ने अत्यन्त विशुद्ध भावों से शुद्ध साधु को घी का दान दिया । उसने शुद्ध भावना द्वारा महान् आत्मलाभ तथा अशुभ कर्मों की निर्जरा के साथ पुण्योपार्जन किया। मुनि ने प्रमादवश उस घृतपात्र को खुला छोड़ दिया । उसमें अनेक चींटियां मर गईं। उसके पाप का भागी साधु है, घुतदान देने वाला दाता नहीं। सभी विषयों में यही न्याय है ।'
३३. जानन्नो ह्यमुनीन् मुनीन् कथमिवाचष्टे मुनीन्द्रोऽवदत्, लोके किन निमन्त्रयन् विगणयेत् साधूनऽसाधूनपि । स्वान्ते वेति स साधूकारकरणरेते च्युता अप्रदाः, किन्त्वेतद्वरवक्तृकोशलकला कि दुर्वचः सौष्ठवम् ॥
किसी ने पूछा- 'भीखणजी ! आप अन्य संप्रदाय के साधुओं को साधु नहीं मानते, फिर भी ये अमुक संप्रदाय के साधु हैं, ये अमुक संप्रदाय के साधु हैं, ऐसा क्यों कहते हैं ?' स्वामीजी बोले- किसी के घर उत्सव होने पर गांव में निमन्त्रण दिया जाता है । निमंत्रण देने वाला सेवक साहूकार या
साहूकार का भेद न करते हुए एक ही शब्दावली का प्रयोग करता है कि आपको निमंत्रण है अमुक साहूकार का । वह मन ही मन जानता है कि कर्ज में लिए हुए रुपये न चुकाने के कारण वह दिवालिया है, फिर भी उसे शाह या साहूकार ही कहता है । यह लोक व्यवहार है, वाक् चातुर्य है, बोलने की कला है । दुर्वचन या ओछी बोली बोलने से क्या लाभ ?
३४. द्वाविंशत्यनुगामिनः सममुनीन् ब्रूते कथं चाऽमुनीन्, भिक्षुययमवात् तदीयलिखिताद् गच्छात् परादागतम् । साधुं यूयमहो मियो नवनवां दीक्षां प्रदद्युः समे, युष्माकं मततः परस्परमतो जाता असन्तः स्वयम् ॥
पादु में भीखणजी स्वामी और हेमराजजी स्वामी गोचरी के लिए जा रहे थे। इतने में सामीदासजी के दो साधु मलिन वस्त्र पहने, कंधों पर पुस्तकों का जोड़ा उठाए हुए, विहार करते हुए ' भीखणजी कहां है ? भीखणजी कहां है ?' यह कहते हुए आए। स्वामीजी ने कहा- 'मेरा
१. भिदृ० १३७ ।
२ . वही, ९८ ।