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श्रीमिबहामाया
तब वे क्रोध-के आवेश में बोले- 'साले का सिर काट गलं ।'
तब स्वामीजी बोले-'जगत् की सभी स्त्रियां मेरी मां और बहिन के समान हैं। और यदि तुम्हारे घर में कोई स्त्री हो, तो वह मेरी बहिन होगी। यदि इस दृष्टि से 'साला' कहा है तो ठीक है और यदि तुम्हारे घर में स्त्री न झे और मुझे साला कहते हो, तो तुम्हें झूठ लगता है । दूसरी बात है-तुमने साधुपन स्वीकार किया तब छह काय के जीवों को मारने का त्यागे किया था। तुम मुझे साधु भले ही मत मानो, पर कम से कम मैं
सकाय में तो हूं। मेरा सिर काटने को कहा तो क्या साधुपन स्वीकार करते समय मुझे मारने की छूट रखी थी ?' यह सुन वे निरुत्तर हो गए ।' ४३. पृष्ठेऽहं मुनिभिक्षुरित्यभिधो भोता सचित्रं गतः,
प्रत्यूचे किमु भिरेव स भवान् मातो महाडम्बरी। किन्वाटोपलवोऽपि नो तव विभो । दृष्टस्तमाह प्रभु. स्तस्मादेव मुनिस्वमिद्धमखिले पूजा प्रतिष्ठा च मे ॥
स्वामीजी पुर और भीलवाड़ा के बीच में थे। वहां ढूंढार से आया हुआ एक आदमी मिला । उसने पूछा-'आपका नाम क्या है ?'
'मेरा नाम भीखण है।'
'ओह ! भीखणजी की महिमा तो बहुत सुनी है। फिर आप अकेले ही वृक्ष के नीचे कैसे बैठे हैं ? हमने तो जान रखा था कि आपके साथ बहुत आडंबर होगा, घोड़े, हाथी, पालकी आदि बहुत ठाटबाट होगा।'
स्वामीजी बोले-हम ऐसा आडंबर नहीं रखते तभी हमारी महिमा है, पूजा-प्रतिष्ठा है।'
४४. जग्गूगान्धिवरेण तेऽतिविमला श्रद्धा गृहीता ततः,
सर्वे खेदवहाः परं यदमुको धत्तेतिदुःखं ततः। स्वाम्यूचे पतिपञ्चतायक्यतः साङ्गाः समे दुःखिताः, लम्बा कञ्चुकिकां तु धारवति तत्कान्तव विज्ञायताम् ॥
संवत् १८४५ में पीपाड़ चातुर्मास में बहुत लोगों ने स्वामीजी के विचारों को स्वीकार किया। जग्गू गांधी ने स्वामीजी के विचारों को स्वीकार किया, तब वेषधारियों के श्रावकों को बहुत अखरा। उन लोगों ने कहाभीखणजी। जग्गू ने आपके विचारों को स्वीकार किया, वह दूसरों को भी अखरा, किन्तु खेतसी लूणावत को बहुत अखरा । वह बहुत चिन्ता करता है।''
१. भि. दृ. ९१। २. बही, १२५ ।