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पञ्चदशः सर्गः
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३८. श्रद्धायां तव कोपि भिक्षुमलपत् प्रौढः प्रपञ्चस्तमाऽऽ
चष्टे कि नहि काचकामलिभिरालोक्येत सन्यं समम् । संयावोऽपि विषोपमो ज्वरिनरः किं नो प्रतीयेत वा, नीरोगस्य शरीरिणः स हि पुनः पीयूषतुल्योऽतुलः ॥
किसी ने भिक्षु से कहा - आपकी श्रद्धा, कपट और दम्भपूर्ण है। भीखणजी बोले-क्या पीलिये के रोग से ग्रस्त व्यक्ति को सारे पीले-पीले ही नहीं दीखते ? क्या अतुलनीय तथा अमृततुल्य हलवा, ज्वरग्रस्त मनुष्य को विषतुल्य नहीं लगता ? वही हलवा नीरोग व्यक्ति को पीयूषतुल्य लगता है।' (वैसे ही मान्यता तो तुम्हारी दोषपूर्ण है और तुम आरोप हम पर लगाते हो।। ३९. भिक्षो ! ऽसंयतिदानदानविषये पापं कथं प्रोच्यते,
श्रेष्ठी कोपि सनीविको व्रजति तत् पृष्ठे पतत् तस्करः। तं वीक्ष्याशु ससारभीरधनिकश्चौरोप्यधावत् ततो,
धावन् सोऽथ पपात तं च पतितं दृष्ट्वा प्रसन्नो धनी ॥ ४०. श्रान्तोऽस्थात् कुलिकोऽध्वगे तरुतले तावद् विभिन्नो धनी,
तं त्रस्तं सलिलाऽहिफेनवशतः सज्जीचकार द्रुतम् । उत्थाय प्रथमं लुलुण्ट धनिनं दस्युस्तदानीं पर
स्तत्प्रयथिसहायकत्वविधिना वैर्येव वैरित्रकः ॥ ४१. शत्रूणां च सहायकोऽपि नियतं शत्रः समगण्यते,
इत्थं संसृतिजन्तवो हि सकलाः षट्कायजीवाऽरयः । यच्चाऽसंयतिजीवनं धनवधाऽऽरम्भाश्रितं प्रच्छक ! तेषां पोषणतः कथं हि सुकृतं साक्षादऽसाक्षादपि ॥
(त्रिभिविशेषकम्) किसी ने पूछा- 'भीखणजी ! आप असंयती जीव को दान देने या उसका पोषण करने में पाप क्यों बतलाते हैं ?' भीखणजी बोले - एक सेठ रुपयों की नौली लेकर जा रहा था । चोर ने उसे देख लिया । वह सेठ के पीछे. पड़ गया। सेठ ने चोर को देखा और वह भयभीत होकर भागने लगा । चोर भी सेठ के पीछे-पीछे दौड़ने लगा । दौड़ते-दौड़ते चोर के ठोकर लगी और वह नीचे गिर पड़ा । चोर को भूमि पर पड़ा देख सेठ बहुत प्रसन्न हुआ और आगे चलता हुआ थकावट के कारण एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठ गया।
पीछे से एक अन्य सेठ आ रहा था । उसने गिरे हुए व्यक्ति को अफीम, पानी आदि पिलाकर तैयार कर दिया। तैयार होकर चोर उठा १. भिदृ० ३००