________________
“पञ्चदशः सर्गः
१०५ ,
कुछेक व्यक्ति यह बात कहते हैं--हम सावद्य-दान के प्रसंग में मौन रहते हैं । परन्तु वे अपने मौन के द्वारा सब कुछ कह देते हैं। स्वामीजी ने कहा-उनका मौन उस स्त्री जैसा है । किसी ने एक स्त्री से पूछा-'तुम्हारे पति का नाम क्या है ?' वह मौन रही। तब व्यक्ति ने पूछा-क्या उसका नाम पेमो है।
'नहीं।' 'तो क्या नत्थू है ?' 'नहीं।' तो क्या 'पाथू' है ? 'नहीं' । 'पूछते-पूछते पति का मूल नाम आने पर वह मौन हो जाती है। तब समझ , लिया जाता है कि इसके पति का यही नाम है।
- इसी प्रकार यह पूछने पर कि क्या सावद्य-दान में पाप है ? वे कहते हैं-'किसने कहा पाप है ?' फिर पूछते हैं क्या मिश्र है ? 'किसने कहा मिश्र है ?' तो क्या पुण्य है ? इस प्रश्न पर वे मौन हो जाते हैं। तब जान लिया जाता है कि इनकी पुण्य की मान्यता है ।'
२२. श्राखा वोऽपहरन्ति दत्तमपि तन् मिथ्या परं धूयते,
कोकी बादरसाधुकारतनया यः श्राविकाऽन्याऽस्यतात् । प्राप्ताऽऽज्येन समं जहार सहसा साध्य्यो हि घाटी रुषा, केनाऽऽविष्कृतमेव वेदनतया जाता प्रसिद्धा ततः॥
एक व्यक्ति ने भीखनजी से कहा-आपके श्रावक साधुओं को दान देकर कभी-कभी पुनः छीन लेते हैं।' स्वामीजी बोले-यह तो मिथ्या है। परन्तु यह अवश्य सुना है कि बादरशाह की लड़की 'कीकी' बाई, जो स्थानकवासी संप्रदाय की श्राविका है, ने ऐसा किया था। एक बार साध्वियां गोचरी के लिए गईं। एक घर से उन्होंने घी लिया। फिर वे कीकी बाई के . घर गई । उसने इन्हें अपने संप्रदाय की साध्वियां समझकर 'घाट' (दलिया) का दान दिया। फिर जब उसे ज्ञात हुआ कि ये तो भीखनजी की साध्वियां हैं, तब रोष में आकर उसने घी सहित घाट उनके पात्र से छीन ली। पास खड़ी एक व्रजवासिनी ने यह सारा देखा और यह बात अन्यत्र फैल गई।'
२३. भक्तानां परिभोजयामि सततं यल्लप्सिका किं ततो,
यावद् यद्गुडमिश्रिता ननु तथा माधुर्यमीशोऽवदत् । त्वत्तीयंत्रयमेव तावदृषिवाक् चातुर्गुणो मोदकस्तत्खण्डोऽपि करोति भुक्तमनुजं प्राङ्गादितं स्वादतः ॥
१. भिद०७२। २. वही, २९१ ।