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पञ्चदशः सर्गः
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• एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा-मैं तुम्हें असाधु मानकर वस्त्र का. दान देता हूं। उससे मुझे क्या होगा ? स्वामीजी बोले-किसी ने अजान में, मिश्री खाई तो क्या वह मिठास नहीं देगी ? क्या खाने वाले का मुंह मीम, नहीं होगा ? साधु को असाधु जानना ज्ञान की कमी है। उनके प्रति की. गई सक्रिया अनिष्ट कैसे हो सकती है ? सिद्धांत के अनुसार सुपात्र को दान-, देना श्रेष्ठ और अनिन्द्य है।'
१७. सत्सद्भ्यो यवऽशुद्धदानददने वित्तव्रतानां क्षयः,. .. :
श्राद्धेभ्यश्च तथापणे हि सुकृतं यरुच्यते संस्फुटम् । तच्चित्रं चरमोचितं किमु ततः सद्भावनाभिः पुनः, साधुभ्योऽपि गृहस्थिनो वरतराः सम्पादिता दानतः ॥
शुद्ध साधुओं को अशुद्ध दान देने पर, धन एवं श्रावक के व्रतों का भी नाश हो जाता है। वही अशुद्ध और अनेषणीय वस्तु यदि भाक्क को दी जाती है तो उसमें धर्म-पुण्य है, ऐसा कुछेक व्यक्ति मानते हैं पर ऐसा मानना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। ऐसा मान लेने पर दान-धर्म के संदर्भ में साधुओं, . से श्रावकों की श्रेष्ठता अपने आप स्पष्ट हो जाती है।
१८. दानत्यागकरापका हि मलिना दीनादिकेभ्यो प्रवं,.
भ्रष्टा एव तदंह्निनामकजनाः श्रुत्वेत्थमाख्यद् गुरुः । तुभ्यं त्यागकरापकस्तव गुरुः सामायिकादो तत- . स्तत्पावप्रणिपाततस्त्वमपि भो ! भ्रष्टः प्रभावी स्वयम् ॥
एक भाई ने स्वामी भीखणजी से कहा कि दान का त्याग कराने वाला पापी और उनके चरणों में वन्दन करने वाला निश्चित रूप से भ्रष्ट है। ऐसा सुनकर स्वामीजी ने कहा- अगर ऐसा है तब तो तुम्हें सामामिकादि में, असंयति दान का त्याग करवाने वाले तुम्हारे कथन के अनुसार पापी और उनके चरणों में नमस्कार करने वाले तुम भ्रष्ट ठहरे ।
१९. काचित् पूपसमर्पिकाऽऽह सुगुरुं हस्ताविधीतं विना, .
स्थातुं न प्रभवामि नैजसदनानुष्ठानही कथम् । नो स्वीयां हरसे क्रियां त्वमपि कि साध्वेषण मामकी, प्रोजनामीति विभाष्य भिक्षुमुनिराट् प्रत्यागतो गौरवात्।।
१. भिदृ० ९२ ।