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'पञ्चदशः सर्गः
१०१ : १२. विश्व केऽपि नरा विवेकविकला अज्ञा निजोक्तेः स्वयं,
तस्माद् यत् प्रवदन्ति नजवृषभं भाराववाहं कदा। पत्युस्ते म्रियतां परन्तु न तके जानन्ति ऋज्वाशयाः, सा गालिः प्रतियाति तत्पतितया मय्येव सारल्यतः ॥
इस दुनिया में कई एक ऐसे विवेक-विकल मनुष्य भी होते हैं जो अपनी भाषा के आप ही अजान होते हैं। उन्हें यह ध्यान नहीं होता कि वे क्या कह रहे हैं और क्या नहीं कह रहे हैं। जैसे भारवहन करने वाले बैल को उसका मालिक बोलता रहता है-'अरे ! थारो धणी मरै ।' पर वह भोला मनुष्य यह नहीं समझता कि यह गाली तो सीधी उसे ही लग रही है, क्योंकि वही तो उस बैल का मालिक है और दूसरा कोई नहीं।
१३. दत्ते दीनजनाय पुण्यमिति चेत् पुण्यप्ररूपी मुनिः,
प्रोक्तः श्राद्धबरेण तहि मिलितं चावां हि कुर्याव तत् । वस्त्रं तेऽन्नकणाश्च मे हि यदि वा पूपास्तवाऽस्मत्कणाः, सोऽवक् नो मम कल्पतेऽहमथवा वर्तेऽत्र साधुत्वहा ॥
असंयति दान में पुण्य की प्ररूपणा करने वाले मुनि ने कहा कि हीन-दीन आदि को दान देने में पुण्य होता है । यह सुन किसी पुण्य-पाप विषयक गम्भीर ज्ञान के धारक श्रावक ने कहा कि यदि ऐसा है तो हम दोनों साझेदारी में पुण्य करें, जिसमें वस्त्र तो आपका और धान्यकण मेरा। तब मुनि ने कहा-'हमें वस्त्र देना नहीं कल्पता।' श्रावक ने कहा-'यदि वस्त्र देना आपको नहीं कल्पता तो न सही। ऐसा करें कि रोटियां आपकी और धान्यकण मेरे ।'
ऐसा सुन मुनि ने कहा-'हम साधुओं को तो ऐसा करना नहीं कल्पत।। अगर हम ऐसा करते हैं तो अपने संयम का नाश करने वाले हो जाते हैं।' १४. प्राहाऽणुव्रतमृत्ततोऽतिचकितो ह्येतत्कथं शोभनं,
यैः साधुव्रतमङ्गता भवति तैः श्राद्धत्वपुष्टिः कथम् । आयुष्मांस्त्वमहं नियेऽभिपतनादित्युक्तिवत् तच्च वा, प्रौडीना गिरयो यतो हि गणना रुत्पूर्णिकायाश्च का ॥
असंयतिदान से श्रावक धर्म अर्थात् अणुव्रत पुष्ट होता है, यह सुनकर अणुव्रती अत्यंत चकित रह गया । उसने कहा-यह कैसे हो सकता है ? जिन कार्यों से साधुव्रतों का भंग होता है, उनसे श्रावकत्व की पुष्टि कैसे हो सकती है ? जिस प्रलयकारी पबन से बडे-बडे पहाड़ भी उखड़ जाते हैं, उड़ जाते हैं तो भलां रूई की 'पूणी' का तो कहना ही क्या ?