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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् एक बहिन स्वामी भीखनजी को गोचरी के लिए बार-बार प्रार्थना करती थी। एक दिन स्वयं स्वामीजी उसके घर गए । वह भिक्षा देने लगी। स्वामीजी ने पूछा-'क्या तुम्हें हाथ धोने पड़ेंगे ?' वह बोली-'मैं हाथ धोए बिना रह नहीं सकती।' तब स्वामीजी ने उसे अनेक प्रश्न पूछे कि तुम हाथ कहां धोओगी ? किस पानी से धोओगी? वह पानी कहां जाएगा? आदि-आदि । बहिन ने कहा- 'मैं अपने घर की क्रिया या अनुष्ठान को नहीं छोडूंगी। हाथ जहां, जैसे धोना है धोऊंगी।' तब स्वामीजी बोले- 'जब तुम भी अपने घर की विधि को नहीं छोड़ना चाहती तो मैं अपनी साध्वोचित एषणा विधि (भिक्षा की विधि) को कैसे छोड़ सकता हूं।' यों कहकर स्वामीजी गौरव का अनुभव करते हुए वहां से स्थान पर आ गए ।' २०. धौतोत्सर्जनतो मिलेत् परभवे तद्धावनं नो ददे, __ स्वाम्याख्यद् वद धेनवेऽर्पयसि किं सोचे तृणानि प्रभो !
सा कि यच्छति दुग्धमाह मुनिपस्तद्वत् सुपात्रार्पणे,
लाभो ह्य च्चतमस्त्वितीह विदिता विश्राणयेद्धावनम् ॥ ... एक जाटनी के घर में धोवन पानी था, पर वह साधुओं को दे नहीं रही थी। साधु खाली हाथ लौटे तब स्वामीजी स्वयं उसके घर गए और पानी देने के लिए कहा। वह बोली-'महाराज ! जैसा दिया जाता है वैसा ही परभव में मिलता है । मैं आपको यहां धोवन पानी दूं तो परभव में मुझे धोवन पानी ही मिलेगा। इसलिए मैं पानी नहीं दूंगी।'
स्वामीजी बोले - 'बहिन ! तू गाय को क्या खिलाती है ?' 'महाराज ! घास देती हूं।'
'गाय क्या देती है।' ..... .. वह दूध देती है।' ..: स्वामीजी बोले-घास के बदले गाय दूध देती है, वैसे ही सुपात्र को दान देने से उच्चतम लाभ मिलता है।'
वह बोली-ऐसा है, तब तो आप धोवन पानी ले जाएं।' उसने धोवन पानी का दान दिया।' २१. मौनं साघविहायिते वितिवचो जल्पन्ति ये केचन,
ते मौनेन हि दर्शयन्ति निखिलं पृष्टा धवाख्या यथा । यावन्नत्यभिधा वरस्य वनिता नो नेति संवादिनी,
याते नाम्नि दधाति जोषमनुयुग जानाति गोत्रं तदा ॥ १. भिदृ० ३२ । २. वही, ३४।