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पञ्चदशः सर्गः
१. श्रीमन्तः प्रतिपादिताः सुसरलाः सारल्यपायोन्धिभिः, सिद्धान्तप्रतिबोधनाय . विबुधराचारपारायणः । श्रीमझिममुनीश्वरैः सुकृपया लोकप्रिया न्यायतो, दृष्टान्तानभिसूचयामि सुतरां तान् साम्प्रतं साम्प्रतम् ॥
ऋजुता के सागर, आचार-परायण, महामनीषी मुनिपति श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने कहा -सरल सुबोध, न्याय सङ्गत एवं लोकप्रिय दृष्टांतों का निरूपण, यथार्थ सिद्धांतों को अभिव्यक्ति देने के लिए किया है। अब मैं उन युक्ति-संगत दृष्टांतों को समुचित रूप से काव्यरूप में प्रस्तुत कर रहा
२. कश्चित् पृच्छक उक्त उक्तमुनिभिः पश्वनधासोऽधिकः, क्षिप्तः कच्चर एव तच्छ्रवणतो रुष्टस्तदाऽबल्पि सः। त्वं चेद् गौरुपयुक्तवादिभिरहो ज्ञानं हि घासो मम, तत् श्रुत्वा मुदितो विवेकसहितः श्राद्धोऽभवत् स्वामिनाम् ॥
बूंदी नगर में सवाईराम ओस्तवाल स्वामीजी से तत्त्वचर्चा करते हुए बार-बार कहते-और बताइए, और बताइए।
तब भिक्षु ने कहा गाय और भैंस के आगे अधिक चारा डालने पर वे उसे इधर-उधर बिखेर देते हैं । उसका कचरा कर देते हैं।'
वे नाराज होकर बोले-'मुझे आपने पशु बना दिया ?' तब स्वामीजी ने कहा- 'तुम यदि पशु हो गये तो मेरा ज्ञान चारा हो
गया।'
ऐसा कहने पर वे राजी हो गए और भिक्ष को गुरु बना लिया।'
३. कश्चिद वक्ति विकत्थनः प्रतिहतास्तेरापथा: प्राह तं, योद्घोरेक इतस्पृहो निजगृहं प्रध्वंसितुं शक्यते । किंतु स्वात्मनिकेतनाऽवनमनास्तद्वत् कथं वर्तते,
एककं वचनं ब्रवीति परितः साधुः समीक्ष्यैव सः॥ १. भिदृ० १। २. विकत्थन:-अपनी झूठी प्रशंसा करने वाला (सा तु मिथ्या विकत्थनं
अभि० २।१८२)।