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चतुर्दशः सर्गः
१. श्रियः श्रेयोमय्याः पतिरपतिरेको जिनपति-, रयं स्फूर्जज्जनोपपदविलसन्मङ्गलमयम् । जिनेन्द्रोक्तं धर्म प्रकटयितुमुत्को विहरते, तमस्तोमं हन्तुं तरणिरिव लोकोपकृतये ॥
कल्याणमय लक्ष्मी के स्वामी, जिनपति को ही एकमात्र नायक मानने वाले आचार्य भिक्षु जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित मंगलमय तथा विश्रुत जैन धर्म को प्रकट करने तथा मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को मिटाने के लिए उत्सुक होकर वैसे ही विहरण करने लगे जैसे अंधकार के समूह को नष्ट करने के लिए सूर्य आकाश में विहरण करता है ।
२. प्रचारार्थ साधं जिनवरमतस्याथ सुतरां,
परिश्राम्यन् स्वामी सततमभितोऽभीतमनसा । गिरस्तस्यार्याणां हृदयगहने प्राञ्जलतया, विशन्त्यो लोकेऽस्मिन्निव रविरुचः क्षिप्नुतमसः॥
वे जिनमत का सार्थक प्रचार करने के लिए चारों ओर निर्भीकता से परिश्रम करने लगे। उन आर्य भिक्षु की वाणी जन-जन के हृदय में ऐसे सरलता से प्रवेश करने लगी जैसे लोक में अन्धकार दूर करने वाली सूर्य की किरणें।
३. महागूढा व्यूढा भ्रमविशठता सम्भृततमा, प्रणश्यन्ती यस्माज्जनजनमनोभ्योऽतिमयतः। मृगारातेरणाद्धतनिजशिरः केशरसटाद्, यथणालिः शीघ्रं चकितचकिता विप्लुतपदा ॥
इस संसार में भ्रान्ति तथा मूर्खता भरी पड़ी थी। वह अत्यन्त गूढ और व्यापक थी। उनकी वाणी से वह जन-जन के हृदय से भयभीत-सी होती हुई वैसे ही भागने लगी जैसे बिखरे हुए केसर की सटा वाले सिंह से भयभीत-सी होती हुई एवं छलांगे भरती हुई मृगों की टोली।