________________
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् स्फुरद्रम्मास्तम्भानुगमनमनेकाधिविधुरं, न धत्ते स्थेमानं वपुरवपुतुल्यं कथमपि । निदानं निर्वृत्याऽवितथमधुना निर्वृतिपुरः, समादध्वं सारं सुकृतमनुशिल्याऽस्य सततम् ॥
हे भव्यो ! यह शरीर अनेक आधि-व्याधि से पीड़ित तथा सुन्दर कदली स्तम्भ के समान निस्सार है। इसीलिए इस शरीर को निर्वति मार्ग का सच्चा साधन बना कर निरंतर सुकृत करते हुए इसका सार निकालो। २७. कृतः पुष्टः पोष्यमधुरमधुरैव्यविसर
र्घनापायः कायस्तदपि खलवद् विकृतिकरः । विपक्षः सम्मिल्यापदि स तनुमन्तं त्यजति हा, ततः कोऽयं मोहस्तदुपरि निरर्थो भवभृतः ।
यह शरीर मधुर-मधुर पोषक द्रव्यों से पुष्ट किये जाने पर भी सघन दोषों वाला एवं दुष्ट की तरह विकार करने वाला है और विपत्ति में विपक्षियों (रोग आदि) के साथ मिलकर जीव को छोड़ देता है । यह कितना खेद का विषय है ! अतः हे भव्यो ! ऐसे शरीर पर यह कैसा निरर्थक मोह !
२८. प्रिया भोगा रोगा ह्यसुखशतमूलं सुखमिदं,
तुरन्ता दुःसङ्गाः प्रतिपदमनल्पास्तत इतः। दुरापाः सद्गोष्ठ्यः शिवपुरपथाकर्षणपरा, असारः संसारस्तदिह निपुणं जागृत जनाः! ॥
ये प्रिय भोग रोग हैं। यह भोगजन्य सुख भी सैकड़ों दुःखों का मूल है। चारों ओर अत्यधिक दुरन्त दु.संग के अखाड़े हैं। मोक्षपथ के आकर्षक सत्संग भी महान् दुर्लभ हैं। अतः हे भव्यो ! यह संसार असार है, इसीलिए यहां सावधानी से जागते रहो ।
२९. यदि क्लान्ताः कामापशद'तरकासारसरणान,
महाशाद लिप्ता वनकरटिवन् मत्तमनसः । जिनेन्द्रनिदिष्टाऽमलसुकृतपीयूषसरिति, सुखेनारं स्नात्वा शुचिशुचितराः स्युविविवधाः ॥
१. अपशदं--निकृष्ट (खेटं पापमपशदं - अभि० ६७९) २. शाद:-कर्दम (जम्बालेशादः-अभि० ४।१५६) ३. विवधः-भारः, विगतो विवध इति विविवधः ।