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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ...४८. पिता पुत्रः पुत्रो भवति च पितवं हि विविधः,
समस्त: सम्बन्धरसकृदभिसम्बन्धसहितः । - प्रवृत्तोऽयं जीवस्तवय किमुकैः कैरिह भवे,
ममत्वं वा मोहः क इह न निजः कोऽस्ति च परः॥
हे भव्यो ! यह जीव पिता से पुत्र एवं पुत्र से पिता-ऐसे नाना प्रकार के सभी सम्बन्धों से अनन्त-अनन्त सम्बन्धों सहित प्रवृत्ति करता रहता . है । ऐसी स्थिति में यहां किसके साथ मोह एवं ममत्व ? इस संसार में कौन अपना नहीं है और कौन पराया है ?
४९. प्रमावाः सोन्मादाः सुकृतधनचौरा इव मताः,
कवायाः सापाया विषमविषवृक्षा इव सदा । न भव्यः संसेव्याः शिवपुरमुखाकाङ्क्षिभिरहो, उपादेयं रत्नंत्रितयममलं निर्मलधिया ॥
हे भव्यो! प्रमाद उन्माद है। वह सुकृतरूपी धन को चुराने वाले चोरों के समान माना गया है । तथा विषम विषवृक्ष के समान ये कषाय भी सदा सदोष हैं । अतः मोक्ष के इच्छुक व्यक्तियों को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें निर्मल बुद्धि से पवित्र रत्नत्रयी की ही आराधना करनी चाहिए।
५०. समोत्कृष्टं धर्मो जिननिगवितो मङ्गलमहो,
महानन्दानन्दार्पणनिपुण ऐन्द्रांहिप इव ।
पथावर्शी धर्मो भ्रमदसुमतां संसृतिवने, ..निरालम्बालम्बोऽखिलजगति धर्मोम्बरमिव ।
यह जिनधर्म सभी धर्मों में उत्कृष्ट, मंगलमय एवं कल्पवृक्ष की तरह मोक्ष सुखों को देने में निपुण है । यह संसार-वन में भ्रमण करते हुए मनुष्य को पथ दिखलाने वाला तथा संपूर्ण जगत् में निरालम्बों को आकाश की तरह आलम्बन देने वाला है। ५१. गुणान् स्वच्छान् धर्मो गुररिव वरान् सङ्क्रमयति,
प्रतिष्ठामुत्कृष्टां प्रमुरिव ददात्येव सुतराम् । अयं धर्मः शर्माभ्युदयितमहाहर्म्यरचना, पुनर्धों वर्मातिशयरिपुशस्त्रापहरणे॥
यह धर्म गुरु की भांति स्वच्छ गुणों को भरने वाला, स्वामी की भांति सदा प्रतिष्ठा देने वाला, सुख एवं अभ्युदयरूप महा हर्म्य की रचना करने वाला तथा शत्रुओं के शस्त्रों को व्यर्थ करने के लिए अभेद्य कवच के समान है।