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चतुर्दशः सर्गः
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, वैसे ही गर्भ में महाम्लान आहार, गर्भ में निवास, जन्म-जरा-मरण, आधि-व्याधि- दरिद्रता, राज्यकरों से उत्पन्न दुःख तथा पराभव के अभिप्राय और विचित्र प्रकार के विपक्षियों द्वारा उत्पादित दुःखों से पीड़ित मनुष्यों को भी सुख कहां है ?
४५. न रत्नानां नौन्यं मणिमयमहामन्दिरतति
मनोभीष्टं कार्य रुचिररुचिरारोचकरुचिः । तथाप्यन्योन्याच्यवनकलहामर्षवसतोऽसुखैर्यद्देवानामपि किमु सुखं तात्त्विकतया ॥
देवलोक में रत्नों की कोई कमी नहीं है। वहां मणिमय 'विशाल भवनों की पंक्तियां ही पंक्तियां खड़ी हैं। देव मन-इच्छित कार्य करने में समर्थ हैं। उनकी अत्यन्त सुन्दर देदीप्यमान कान्ति है। फिर भी वे देव परस्पर ईर्ष्या, च्यवन, कलह, क्रोध के वशीभूत होकर दुःखी होते हैं। उन देवों को भी तात्त्विक दृष्टि से सुख कहां है ?
४६. तथाप्येते प्राणा बहुलकृतकिण्वा बहुभवाः,
प्रमादादी सक्ता अरतिरतिसंसक्तमनसः। हठात् भूयो भूयोऽसुखमयजगत्सम्मुखमहो ! प्रधावन्ते वश्यं नतमभिमुखं मेघसुमवत् ॥
फिर भी रति-अरति में संसक्त मन वाले एवं प्रमाद आदि में आसक्त प्राणी बहुत पापों द्वारा दीर्ष संसारी बन कर हठात् बार-बार दुःखमय जगत् के सम्मुख वैसे ही दौड़ते हैं जैसे निम्न स्थान के सम्मुख पानी।
४७. भवे रङ्गमञ्चे नट इव परामोदमधुरो,
वृथाशासन्तानः स्फुरदभिनयानन्दिनिपुणः । परावर्तीरूपादणुरिव नरीनर्तनपटुरयं प्राणी प्रीणः प्रणयति न धर्म जिनपतेः॥
हे भव्यो ! यह जीव वृथा आशाओं की परम्परा से इस भवरूप रंगमंच पर औरों को खुश करने के लिए हाव-भाव से आनन्दित करने वाले निपुण नट की भांति अभिनय करता है एवं वेश बदल-बदलकर परमाणु की तरह नाचता रहता है, पर जिनधर्म की उपासना नहीं करता। १. नतं-नीचे, निम्न । २. जलवत् ।