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६३. यथार्थे ह्यारूढा जिनवर गिरो मौलिकतया, तदीयाज्ञा तस्माच्छिर सिवहनीया बहुगुणा । अरागत्वाच्छङ्कापमपि न तत्रास्ति तनुकं, महानन्दानन्दस्तवनुसरणादार्जवगुणैः ॥
जिनवाणी मूल से ही यथार्थ पर आरूढ है । अतः प्रभु की बहुगुण युक्त आज्ञा को शिरोधार्य करनी चाहिए । वीतरागता के कारण उनकी वाणी में तनिक भी संशय नहीं होता । ऋजुतापूर्वक जिनवाणी का अनुसरण करने से मोक्षानन्द की प्राप्ति होती है ।
६४. अनन्तर्धर्मः संयुतमभिहितं तस्वमखिला,
भिधायि स्यान्मानं नय इह तवेकांशलपनः । स्वभिन्नांशोच्छेदि स्फुटतरमिदं दुर्णयवचः, समुत्पादक्षीणस्थितिमुणमयं वस्तु युगपत् ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
वीतराग ने प्ररूपित किया है कि सभी तत्त्व अनन्त धर्मात्मक हैं । जो शब्द सभी धर्मों का सम्पूर्ण ज्ञापक है, वह प्रमाणवाक्य है और जो एक धर्म का ज्ञापक है, वह नयवाक्य है । जो अपने धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मो का उच्छेदन करने वाला है, वह दुर्णयवाक्य है । अर्हत् प्रवचन के अनुसार सभी पदार्थ युगपद् उत्पाद - व्यय - धोव्यात्मक हैं ।
६५. यवेकः पर्यायः स्वत इह भवेद् द्रव्यनिवहे,
ह्यनन्ताः पर्यायाः सपदि परतः स्युः खलु तदा । स्वरूपादेकस्मिंस्तदिव पररूपादपि सदा
विरुद्धाः प्राप्यन्तेऽमितसदसदाद्या गुणगणाः ॥
जहां द्रव्य-समूह में स्वतः एक पर्याय व्यक्त होती है, तब वहां अनन्त पर-पर्यायें अव्यक्त रहती हैं। जिस द्रव्य में सत् आदि स्वगुण हैं वहां पररूप से असद् आदि अनन्त विरोधी गुण भी पाए जाते हैं ।
६६. मृषान्धश्रद्धान्धानुकरणतया नास्ति सुकृतं,
तथा किं त्रैलोक्ये कृतककुमणिः स्याद् वरमणिः । परीक्षाप्रावीण्यास्तदथ सुकृतं ब्राह्यमसकृत्, कुपक्षापातन परिफलति पुष्पामरतरुः ॥
जैसे नकलीमणि कभी असली मणि नहीं बन सकता, वैसे ही मिथ्याश्रद्धा, अन्धश्रद्धा और अंधानुकरण से कभी अधर्म धर्म नहीं बन सकता । अतः बार-बार परीक्षापूर्वक ही धर्म को ग्रहण करना चाहिए। केवल मिथ्या पक्षपात से धर्म का कल्पवृक्ष नहीं फल सकता ।