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चतुर्दशः सर्गः २२. पदव्यो वे तस्याऽमृतवरपुरस्याभिहितवान्,
जिनेन्द्रः कारुण्यात् समविषमरूपे स्फुटतरे। सदाऽऽद्यां पञ्चोखतनियमितां वीतकलुषां, द्वितीयां पञ्चाणवतवरमयी पश्चिमतमाम् ॥
जिनेन्द्रदेव ने भव्य प्राणियों पर करुणा कर मोक्ष नगर के दो मार्ग निर्दिष्ट किए हैं- सम और विषम । सम मार्ग है-निर्दोष पांच महाव्रतरूपे और विषम मार्ग है -पांच अणुव्रत रूप। २३. मनस्वी प्रोजस्वी यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरी,
स्वराभिस्तबुद्ध्या सरलपथि पान्यो भवतराम् । न चेतादशक्तिस्तदासरलमार्गानुगमको, यतोऽशश्वद्भावः क्षणिक इव चास्ते तव भवः ॥
हे भव्यो ! जो मनोबल से युक्त हैं, ओजस्वी हैं और जो शीघ्र ही मोक्ष के इच्छुक हैं वे प्रथम सम मार्ग-महाव्रतों के पथिक बनें । यदि वैसी शक्ति न हो तो दूसरे विषम मार्ग-अणुव्रतों के पथिक बनें। इससे तुम्हारा भव अशाश्वत हो जाएगा, बौद्ध धर्म के तत्त्वों के समान क्षणिक हो जायेगा। २४. नरा भव्याः सभ्या ! प्रकृतिरसतश्चेतनयुता,
दुरापेनाऽनेनोत्तममनुजजन्मेन' जगताम् । न कर्तव्यं पापाचरणमपि मा पोषयतक, व्यसारं संसारं मधुरपयसा पन्नगमिव ।।
हे भव्य सभ्यो । प्रकृति से ही तुम चेतनावान हो, अत: दुष्प्राप्य उत्तम मनुष्य जन्म में पापाचरण मत करो एवं मधुर पय से सांप की तरह इस असार संसार का पोषण मत करो। २५. धियोऽशीला लीला लुलितलयलालित्यविलया,
तडित्तेजस्तुल्याऽरुणतरुणतातीव्रतरसा। नदीपूरप्रख्यं जगति जनताजीवनजलं, तरध्वं तीर्थेशाभिहितसुकृते जागृतजनाः ! ॥
हे भव्यो ! यह संसार की लक्ष्मी कृलटा है । जो लीला है वह थोड़ा सा मनोरञ्जन करके नष्ट होने वाली है । यह फली-फूली तरुणाई भी विद्युत् प्रकाश के समान है । जनता का जीवन-जल नदी के पूर के समान है । उसको तुम तर जाओ तथा जिनेश्वर देव द्वारा कथित धर्म के प्रति जाग उठो। १. जन्मन्, जन्मम् -दोनों शब्द हैं।