________________
७८
१८. चतत्रः संसृत्यां विततमतयो मारकमुखा, नगर्यो जन्तूनामरतिरतिभाजामिव सदा । अमूषूद्भाषन्ते नृपतिपथवद् योनिनिवहाः, सुखंर्लक्ष्या लक्षाः खलु चतुरशीतिर्बहुभिदा ॥
हे भव्यो ! दुःख-सुख में रक्त मनुष्यों के नरक आदि विस्तृत गति रूप चार नगर हैं और इनमें सहजता से पहिचाने जाने वाले चौरासी लाख योनि रूप मार्ग राजमार्ग की तरह दिखाई दे रहे हैं ।
१९. इमां मर्योद्भूति प्रवरनगरीं प्राप्य सुभगां,
कथञ्चिद् व्यामोहाद् कामणवशतो मूढधिषणाः । अनाप्तेः सम्यक्त्वादिकवरपदार्थस्य विफलं, विनक्ष्यन्ति स्वायुः परिपण इव प्राणिनिकराः ॥
किसी प्रकार से सौभाग्यशाली मनुष्यभव रूप नगर को प्राप्त कर मूढमत वाले प्राणी व्यामोह से भ्रमण करते हुए सम्यक्त्व आदि श्रेष्ठ पदार्थों को न लेकर मूल धन के समान अपनी आयु को निष्फल ही खो रहे हैं ।
२०. गतायुः सर्वस्वा विवशतररङ्का इव मुधा,
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
नयन्ते निष्कामा नरकनिगमं ते नियतितः । दशां शोच्यां याताः शरणरहिताः खिन्नमनसो, त्रियन्ते सन्त्रस्ता असुखमनुभूयाऽधिकतरम् ॥
1. जैसे विवशता से रंक अपना सर्वस्व खो बैठता है, वैसे ही मनुष्य अपने आयु- सर्वस्व को खोकर बिना मन ही नियतिवश नरक की ओर चले जाते हैं। वहां उन खिन्न मन वाले शरण रहित मनुष्यों की शोचनीय दशा बन जाती है एवं विविध दुःखों का अधिक से अधिक अनुभव करते हुए वे संत्रस्त प्राणी बार-बार मरते हैं ।
२१. अतो जंनं धर्मं प्रवहणमिवादध्वमधुना, जना यूयं तूर्णं सकलसुखतृष्णातरलिताः । अतः संसाराम्भोनिधिपरतटस्यां स्थिरसुखां, जिहीध्वं रामस्यादतुलसुषमां मोक्षनगरीम् ॥
हे भव्यो ! यदि सम्पूर्ण सुखों के इच्छुक हो तो प्रवहणरूप जैनधर्म को अब स्वीकार करो एवं इस संसार समुद्र के पार उस तट पर स्थित स्थिर सुखवाली अतुल सुषमायुक्त मोक्ष नगरी को उत्साह से प्राप्त करो ।