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११. समुद्धर्तुं भव्यान् कुमतिकुमताद्धेन्दुकलितां - स्तितीर्षा तृष्णार्त्तान् भवजलनिधौ मज्जनपरान् । गृहीत्वाऽर्हद्वाणीप्रगुणतर्राण तारणपटुं स्वयं पोतोद्वाही तटनिकटवर्तीह मुनिपः ॥
दुष्ट व्यक्तियों के दुष्ट बुद्धिरूप गलहत्थों से अनेक भवसमुद्र में डूब रहे हैं । यथार्थं में वे तैरने की इच्छा रखते हैं । उनका समुद्धार करने के लिए स्वयं तैरने और दूसरों को तारने में कुशल स्वामीजी अर्हद् वाणी रूप जहाज को लेकर, स्वयं कर्णधार बनकर, तट के निकट आ खड़े हुए।
१२. मुमुक्षूणामिन्द्रः परमकरुणान्दोलितमनाः,
प्रबोधुं मर्त्यानां समुदयममुं सुन्दरगिरम् ।
वितेने शर्वयिवरवरयितेवाका रहितो,
निजां ज्योत्स्नां जंत्रीं कुमुदविपिनं कन्दलयितुम् ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
परम करुणा से आप्लावित हृदय वाले मुनियों के अधिपति आचार्य भिक्षु लोगों को प्रबोध देने के लिए अपनी सहज सुन्दर वाणी का वैसे ही विस्तार करने लगे जैसे निरभ्र आकाश में चन्द्रमा कुमुदवन को विकस्वर करने के लिए अंधकार पर विजय पाने वाली अपनी चन्द्रिका का विस्तार करता है ।
१३. अयं जीवः क्षीब' प्रबलपवनोद्धूततृणवद्, भवारण्ये भीमे शमितशरणो बम्भ्रमदहो । कथञ्चिद्दोर्ल भ्याद्विदितदशवृष्टान्तततितो, नरत्वं सम्प्राप्तं सुकुलशुभ जात्यार्य निगमे ॥
यह उन्मत्त जीव प्रबल पवन से उद्धृत तिनकों की भांति इस भयंकर भवरूपी अशरण अरण्य में चक्कर लगा रहा है । मनुष्य जन्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । उसकी दुर्लभता का अबोध देने के लिए दस दृष्टान्त प्ररूपित हैं । ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, उत्तम जाति और उत्तम देश – आर्यदेश उसे प्राप्त हुआ ।
१४. तटव्रोः शाखा सरिति वहतां निःस्वकनृणां,
घुस दिव्यद्रत्नं' जलधिपततां सत्प्रबहणम् । महानन्देच्छूनां सकलसुविधा साधनमिदं,
मनुष्यत्वं लब्ध्वा सफलयत भव्या ! जिनवृषात् ॥
१. क्षीब: - उन्मत्त (मत्ते शौण्डोत्कटक्षीबाः - अभि० ३।१०० ) २. महाध्यं माणिक्यम् ।