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चतुर्दश: सर्ग:
उन्होंने त्रिकरण योग से भगवद् आज्ञा में, मोक्षमार्ग में, शुभाध्यवसाय में, व्रत में, अहिंसा में, तृष्णा मिटाने में, सदुपदेश में, अराग-द्वेष में, पापी को पाप से बचाने में, लोकोत्तर ज्ञान में एवं आत्मलाभ में निरवद्य धर्म का निरूपण किया ।
८. पवित्रैस्तद्वृत्तः पुनरपि तथालापलपितैः, समाकृष्टा लोका ह्युपतदमुपाजग्मुरनिशम् । भवारण्योत्तप्तानभिलषितशुद्धंकसुकृतान्, सरस्वत्या सत्या परिषद मितांस्तर्पयति तान् ॥
मुनिश्री के सत्य उपदेश एवं पवित्र चरित्र से समाकृष्ट लोग निरंतर निकट आने लगे । उनकी परिषद् में आनेवाले वे लोग भवारण्य से उत्तप्त तथा सच्चे धर्म के अभिलाषी थे । आचार्य भिक्षु उन भव्य प्राणियों को अपनी सत्य वाणी से तृप्त करने लगे ।
९. शरच्चन्द्रात् तारा दशशतरुचेरम्बुजवनं, चरित्रं सम्यक्त्वात् समयसुविधेः कर्मनिखिलम् । सुगन्धात् सौमौघं समवसरणं सर्वविदुषस्तथा श्रीमद्भिक्षोः परिषदि जनाः संशुशुभिरे ॥
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परिषद् में आये हुए मनुष्य स्वामीजी से वैसे ही सुशोभित होने लगे जैसे शरच्चन्द्र से तारागण, सूर्य से कमलवन, सम्यक्त्व से चरित्र, सिद्धान्त की सुविधि से समस्त क्रियाएं, सुगन्ध से फूलों का समूह तथा भगवान से
समवसरण ।
१०. विदित्वा सावद्यं त्रिकरणयुजा यद् यवहरत्, परांस्तस्माद् गोप्तुं ब्रुडितपत नैकाग्रयकरणात् । स कर्तव्यारूढः प्रसफलयितुं तारकपदं, निरंहोनुक्रोशी समुपदिशते जैनसुकृतम् ॥
उन्होंने सोच-समझकर त्रिकरण-योग से सावद्य कार्यों का त्याग किया है। ये कार्य डुबोने वाले तथा पतन की ओर ले जाने वाले हैं। लोगों को इनसे बचाने तथा अपने तरण तारण पद को सफल बनाने के लिए आचार्य भिक्षु अपने कर्त्तव्यपथ पर आरूढ हुए और निरवद्य अनुकंपा से प्रेरित होकर जैनधर्म का उपदेश देने लगे ।